जैन तत्त्व विद्या | Jain Tattv Vidya

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Jain Tattv Vidya by प्रमाणसागर जी महाराज - Pramansagar Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चौदह जाती है। तदनन्तर पुनः पतन, पुनः अधोगति हो जाती है। कालचक्र की उत्थान से पतन ओर पतन से उत्थान की गतिमयता इसी प्रकारं बनी रहती है। मानवजाति का संस्कारगत विकास ओर द्वासकाक्रम भी घड़ी के इन कोटं की भोति चरता रहता है । सम्यग्दरन के बिना सम्यक्चारित्र कार्यकारी नही है। इसकी युक्तिमत्ता का बोध अंक ओर शन्य के दृष्टान्त द्वारा कितने प्रभावशाली ढंग से हो जाता है। देखिए - “सम्यग्दर्शन ओर सम्यक्चारित्र मे अंक ओर शुन्य का सम्बन्ध है। चाहे जितने भी शून्य हो अंक के अभाव मे उनका कोई महत्त्व नही होता। यदि शून्य के साथ एक भी अंक हो तो अंक ओर शन्य दोनों का महत्त्व बढ़ जाता है। सम्यग्दर्शन अंक है ओर सम्यक्वारित्र गुन्य।” (पृ. १२३) अतिचार का भाव बुद्धिगम्य कराने के लिए दिये गये इस दृष्टान्त की सटीकता भी दर्शनीय है - “जैसे धरती पर बीज बोने के बाद भकुरोत्पत्ति के साथ ही अनेक प्रकार के खर, पतवार उग आते है, उनको निदाई-गुडाई करनी पडती है, उसी प्रकार त्रत, नियम, संयम आदि अगीकार करनं के बाद भी मनोभूमि मे নলা को मलिन करनेवाली अनेक प्रकार की दुर्भावनापे/दुर्वृत्तियो उभरने ठगती है । यही अतिचार कहलाते ই” दरव्यानुयोग के अन्तर्गत मुनिश्री ने छह द्रव्य, सात तत्त्व ओर नौ पदार्था का विवेचन करते हुए पुद्गल, धर्म ओर अधर्म द्रव्यो की वास्तविकता कों वैज्ञानिक कसोटी पर कसकर सिद्ध किया हे । इसी प्रकार प्रमाण, नय, निक्षेप कौ प्रस्तुति भी अत्यंत उलाघनीय हे) प्रस्तुति कुछ ऐसी है कि एक बार पढ़ते ही हृदयंगम हो जाती है। आगे जीव के पाँच भाव, गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा आदि की मुनिश्री ने अत्यन्त सटीक व्याख्या को है। प्रसंगवश मुनिश्री ने लोकप्रचलित अनेक भ्रान्तियो का भी निराकरण किया है । यथा, जैन तीर्थकरों को ईश्वर का अवतार मानने कौ भ्रान्ति कुछ कतिपय लोगो मे हे, उसका युक्तिपूर्वक निरसन किया है । इसी प्रकार कुछ जैन तत्त जिज्ञासु इस भ्रान्ति सं ग्रस्त है कि जिनभक्ति से केवल शुभकर्म का बन्ध होता है । मुनिश्री




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