भारतीय दर्शन | Bhartiy Darshan

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Bhartiy Darshan  by डॉ राधाकृष्णन - Dr. Radhakrishnan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ भारतीय दर्शन ज्ञान ना एक समीक्षात्मक सिद्धान्त ही होना चाहिए । समालोचकों गे विरोधियों को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वे भ्रपनी प्रकल्पनाद्ओों की प्रामाणिकता किसी दिव्य ज्ञान के सहारे सिद्ध न करें बल्कि ऐसी स्वाभाविक पद्धतियो द्वारा रिंद्व करें जो जीवन श्रौर ग्रनुभ्व पर भ्राधारित हों । कुछ ऐसे विद्वासों के लिए जिनकी हम रक्षा करना चाहतें हे हमारा मापदण्ड शिथिल नही होना चाहिए। इस प्रकार आत्मविद्या श्रर्थात्‌ दर्शन को अरब आान्वी क्षिकी अर्थात्‌ ग्रनुसघानरूपी विज्ञान का सहारा मिल गया । दा - निक विचारों का तरके की कसोटी पर इस प्रकार कसा जाना रवभावत कट्टरताबादियों को रुचिकर नही हुप्रा । श्रद्धालुग्रो को यह निश्चय ही निर्जीव लगा होगा क्योकि झन्त - प्ररणा के स्थान पर अब श्रालोचनात्मक तक झा गया थ। । चिन्तन की उस शक्ति क स्थान जो सीधी जीवन प्रौर अझन भव से फटती है जैसी कि उपनिपदों में है श्रौर श्रात्मा की उस अ्रलौकिक महानता का स्थान जो परब्रह्म का दान झार गान करती है जैसी कि भग वदुर्गीता मे है कठोर दर्शन ले लेता है। उसके ब्रतिरिक्त तर्क की कसोटी पर पुरानी मान्यताएं निश्चय ही खरी उतर सकेगी यह भी निरश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता था | इतने पर भी उस युग की सवेसान्य भावना का म्राग्रह था कि प्रत्येक ऐसी विचारधारा को जो तर्क की कसौटी पर खरी उतर सकें दर्शन के नाम से ग्रहण करना चाहिए । उसी कारण उन सभी नकंसम्मत प्रयासों को जो बिस्व के सम्बन्ध में फेली विभिन्‍न विसरी हुई चारणात्रो को कुछ महान्‌ व्यापक विचारों में समेटने के लिए किए गए दर्गन की सज्ञा दी गई। ये समरत प्रयास हमें सत्य के किसी न किसी अ्रण को श्रचुभा कराने में सहायक सिद्ध होते है । उससे यह विचार ब्रना कि प्रकट रूप में परथऋ ये सवनस्त्र प्रतीत होते हुए भी ये सब्र दर्शन वस्तुत. एएक ही बृहतू ऐतिहासिक योजना के ग्रगह। सौर जब तक हम इन्हें स्वतन्त्र सम भत रहेंगे तथा ऐतिहासिए समन्वय में उनकी रिथिति पर ध्यान नहीं देगे तब तक हम टनकी वास्तविकता को पूर्णस्प से हृदयगम सही कर सकते । - न्यायमाय ह # 2 गन ७ दंड । कौनिल्स लगभग 3०० 2० पूृ०् को कहना ही कि श्रान्वीक्षिकी विद्या यब्न को एक अलग ही शाला है अर अन्य लोन शाला घी अथोत सेदी बातों श्रथात्‌ बागिउय आर दर्टनीति और राजनीति या कटनीलि के जशतिरशित् है ह 2 २ | ठ० पू० छठी शनाच्दी जब कि इसके विशेष ४ ५1सन को आवश्यकता झानभव की गे मारते मे एक कराबद्ध दशन-पद्धति के प्रारम्भ के लिए प्रसिद्ध है और ० पू० पहली शतार्दी लक झान्वीक्षिकी सलाम के स्थान पर दि शन शब्द प्रयुक्त होने लगा देशिए सह भारत शार्तिपद है ० दे दर लसिगवत पुराण ८ ह४ ० 1 प्रत्येक जिज्ामा संशय को लेकर हो प्रारम्त होती है सौर एक श्ावश्यकती की पूर्ति करती । तुनना की जिए--जिश्नासया सब्देह प्रया ने सचर्यात नामती 2४ 2 है 2 । रामायण में श्रान्वीज्िकी को निन्दिन माना गया है योकि यह मन थी को थमशास्थ्रों की श्राष्माओं में विमुख् करती है २८ 2४००५ अ । सद्दाभारत शातिपत्र ह८० द७-इह3 र४घू ८ । मन के श्नसार एस व्यक्तियों का जो तक हवुशारन द्वारा पदश्नस्ट होकर वेदों तथा धर्मसूजो का अनादर करते हैं बढ़ित्कार काना ाहिए २ 2 है फिर भी गोलेग अपने धर्मसत्र ११ में शरीर मन ७ ४3 राजाओं के लिए शन्वीक्षिकों के के पाठ्यल स को विवान करने दे | तॉकिका को विधान समाशों में सम्पिलिन किया जाता था । तक जब घमशास्व को समधन करता है ना उसकी प्रशंता दोती है । व्यास का दावा दे कि उन्हेंने श्रान्‍्वीछिको डरा बेदा को न्यवरथा की न्यायसृत्रबूत्ति ह 2 १ | ३- माने सबदर्शनतंत्रथ । मान?




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