सनातन जैन ग्रंथमाला | Sanatan Jain Granthmala
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
210
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सच्दाउुशासन 1 डे
उन रपशेन रसना जादि इंद्रियोंके द्वारा उनके वि-
दय स्एशे रस आदिको ग्रहण करता छुआ यदद जीव मोदित
दोता है द्वेप करता दे और राग करता है तथा मोदित होने
और राग ट्रेप करनेसे इस नीवके फिर कर्माका दंध दोता
है। इसप्रकार मोहके स्यूदमें ( मोइकी सेनाकी रचनामं )
थाप्त हुआ यद्द जीव सदा परिभ्रपणु किया करता है ॥१९॥
तस्मादेतस्य मोहस्य मिथ्याज्ञानस्य च दिप ।
ममाहेकारयोश्चात्मन्विनाशाय कुरूद्यमं ॥ २० |
इसलिये हे घात्मन ! ये मिध्यादशेन और पमिथ्पाहान
दोनों दी तेरे श ई थतएव इन दोनोंको नाश परनेके
लिये तथा प्रकार ओर अइंपारको नाश परनेरे: लिये
उद्यप दार ॥ २० ॥।
चेधहेतुपु सुख्येपु नर्यत्सु क्रमशस्तव ।
ठु
ध. वघहेतुर्दि हि.
झेपो$पि रागद्रपादिवंधहेतुर्विन्यति ॥ * ११
पमिध्दादशंन मिध्याद्न तथा ममफार छोर अइंकार
देघदे दर पारण है पट दे भट्ट से जाये हो हटुरमरे
दादी दडे एए राग हुए शाड़ि दंधडे: कारण भी शरए
नह ऐो जापंगे ॥ २१ ॥।
सतरसं पंपोदनां समसदानां दिनाशतः
> सागर: सजा रदिप्ट न था न दे
चपघनणासारमु्त३ संस शानिप्यासे सरता ॥ दर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...