धर्म और संस्कृति | Dharm Aur Sanskriti

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Dharm Aur Sanskriti by जमनालाल जैन - Jamnalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आस्र-दृष्टि की मयादा दे शास्नादष्टि की मयादा _.णणणणणणण “किया तो, उसने उस सत्पुसुष पर मेहरबानी नहीं की बल्कि अपनी ही कीमत बढ़ायी 1 फिती शञास्र को माननेवाला व्यक्ति उस शात्र से बड़ा भी हो सकता है और छोट भी । सर जगर्दीशचंद बहु या. सर चंद्रशेखर रामन जला कोई प्रयम श्रेणी का वैज्ञानिक जब किसी दूसरे वेज्ञानिक के प्रथ का आदर करे या उसका हवाला दे, तब्र बह उस प्रंथ में छिखी हुई बात को इसीलिए नहीं सानत। है कि वह उस अंथ में पायी जाती है, श्रंत्कि इस बुद्धि से कि दूसरे वैज्ञानिकों का अनुभव भी उसके अनुभव की ताईद करता है । लेकिन विज्ञान के साधारण पण्डित जिन्हें अपना निज का कोई अनुभव नहीं दे वे केवछ उस श्रेय के आधार पर ही उस बात को स्वीकारते हैं, इसलिये उसका प्रमाण देंतें हैं । यहीं बात धमंशास्त्रों पर भी लागू होती है। श्री शानेश्वर ने अम्तानुभव में एक जगद अपना मत बतला कर आगे लिखा है--''और यहीं शिवभीता तथा भगवत्त्मीता काभीमसतदे। लेकिन ऐसा न माना जाय कि शिव या श्रीकृष्ण के बचनों के आधार पर ही मैंने अपना मत बनाया है । उनके ऐसे वचन नद्दीतेता भी सेंयददी कइता।” तुख्सीदास और रामदास, नामदेव और दुकाराम, नानक और कबीर ये सभी असछ में वेदिक परम्परा में पढ़े हुए सन्त ये। लेकिन तुलर्हादास और रामदास ने शास्रों का जितना बन्धन माना, उतना नामदेव ओर तुकाराम ने नहीं माना और नानक और कबीर तो उलकों पार ही कर गए. सन्तों की पहली जोड़ी भद्-सेस्कृति में पठी हुई थी. ओर आखिर तक किसी-न-किसी रूप में उस से संलान रही 1 फिर भी तुलशवीदासजी के राम और वाल्मीकि के राम में कितना अंतर है दुलसीदासजी अपने राम के द्वारा झाम्बुक का दी कर भ उनते अर््रश्यता तथा पाफि-मेद के नि शोर द के नियमों का पालन करा सके | रामदास




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