हिन्दुस्तानी त्रैमासिक शोध पत्रिका - भाग 44 | Hindustani Tramasik Shodh Patrika - Bhag 44

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Book Image : हिन्दुस्तानी त्रैमासिक शोध पत्रिका  - भाग 44 - Hindustani Tramasik Shodh Patrika - Bhag 44

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बच १ को शाक्त-चेतमा पशु अस्तु, यहें नितान्त स्वाधाधिक है कि ऐसे गहन शाक्ताभिनिवेशी सांस्कृतिक आवेष्टन वाले घंगाल में रहते हुए निराला की अन्तश्येतना में शाक्त 'स्पिरिट' पैवस्त हुई जो उनके कांव्य-साहित्य मे प्राणात्मक अन्तर्धारा बनकर व्यक्ताव्यक्त-माव॑ से संचरित है। अवघेय है कि हिन्दी में आते के पूर्व निराला” बंगला में अपनी लेखनी भूरिश: माँज रहे थे | सात-आाठ साल की उच्र में बंगला में कविताएं भी लिखने लगे थे । बंगाल में बसने से इनकी सातुमाषा ही बंगला हो थई थी ) कहना से होगा, इसी कारण आगे चलकर जब हिन्दी में भी पारगत हो गए तो. हिंदी बंगला का लुलसात्मक व्याकरण” तक लिख डाला जो १४१४ में *सरस्वती” में प्रकाशित हुआ था । बंगला की श्रष्ठ साहित्यिक विभूतियों - रवि बाबू, चण्डीदास, विवेक्ातन्द और वैष्णव कवियों का इन पर प्रभाव सर्दमान्य है । 'अनामिका' संग्रथित रबि बाबू, विवेकानस्द आदि की कविताओं के ४ मुवाद भी इस तथ्य के इजहार हैं । यह कम विचित्र बाते नहीं कि ५६-१७ साल की उम्र तक 'निराला' हिन्दी में बिल्कुल कोरे थे। हिन्दी साषा और साहित्य में उनके स्थापित होने के पीछे आया प्रणोदिनी शक्ति के रूप में बिल्कुल 'पुरमधिराषह्वा- पुरुषिक।' (शिव की अहत्ता, उनकी शक्ति) की भाँति उनकी धर्मपरनी' मनोहरा देवी ने कार्य किया था. जो उत्तरप्रदेषश्थ रायबरेली शी थीं जौर इसी लिए जिन्हें हित्दी का अच्छा ज्ञात था । स्वर्गीय पत्नी के प्रति 'गीतिका' के समर्पण में “निराला” के मर्म-सजल कंस से ऋण-ज्ञापन का भाव सहज ही' फूट उठा है -- “जिसकी हिन्दी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आँखें नहीं मिला सका, लजाकर हिन्दी की शिक्षा के संकल्प से, कुछ काल बाद देश से विदेश, पिता के पास चला गय£ था और उस हीन हित्दी प्रान्त में, बिना शिक्षक के 'सरस्वती' की प्रतियाँ लेकर, पद-साधना की और हित्दी सीखी थी; जिसका स्वर गुहजन, परिजन आर पूरजनों को संम्मर्सि में मेरे संगीत-स्वर को परास्त करता था * उस सुदक्षिणा स्वर्गीया प्रिया प्रकृति श्रीमती मनोहर देवी को सादर ।” प्रिया झकति'-- यह प्रयोग भी कितना साभिप्राय है और शाक्त दृष्टि-संवलित । जगज्जसनी महाशक्ति परमात्मा की 'परा प्रकृति” कही गई है -- “त्ं परा प्रकृति: साक्षाद ब्रह्मण: परमाह्मनः | त्वत्तो जात॑ जगत्सर्व त्व॑ जगज्जननी शिवे 777 और, शाक्त दृष्टि में 'परा देवी जगत के स्त्री-मात्र में आच्छाप विग्रह-भाव से विलसित मानी गई है--' तव स्वरूपा रमणी जगत्याच्छनविग्रह्मा' ।1* 'सादर'--प्रयोग में भी यह उद्त्त हृप्टि-्योघ उद्भिन्न है ! थी सीता के प्रति 'निराला' के लक्ष्मण की से केवल ली किक रूप से ही मातू-दृष्टि है, बिक बह उन्हें साक्षातु पराधक्ति के: रूप में देखते हूँ “जिनके कटाक्ष से करोड़ों शिव-विष्णु-अज कोटि-कोर्टि सुर्य-चन्द्र-तारा-प्रह रद शरद है सारे ब्रह्माण्ड के जो मूल में बिराजती हैं आधिशंक्तिरूषिणी , प्रणव से लेकर प्रतिमस्त्र में के खर्थ में जिनके अस्वित्व की ही दीखतठी है हृढ छाप माता हूँ मेरी वे । *”




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