सन्त - वाणी | Sant Vaani

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Sant Vaani by आचार्य काका कालेलकर - Aachary Kaka Kalelkarवियोगी हरि - Viyogi Hari

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काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

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वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थै शक शै थक “घट-घट व्यापक राम १. मेरा साई हर घट के श्न्दर मौजूद हैं; एक भी सेज नहीं; जो मेरे प्यारे सजन से सूनी हो । पर बलिहारी तो उस घट को है-- जिसमें प्रकट हो वह प्यारा साई दीदार देता है । २. मेरा साई त्राग की नाई; घट-घट में समाया हुआ है । पर लगन के चकमक से चित्त लगे तब न-- इसीसे तो मेरी यह लो बुम-बुभ जाती है | ३. राम मेरा रम तो हर घर में रहा है, पर इस मेद को समभता कोई विरला ही है । राम की श्रलख व्यापकता को तो वही समभेगा; जो उसके प्रेम के गहरे रंग में रँँगा होगा । ४. इस तन के श्रन्दर ही तो वह शाही तस््त है, जिसपर हमारा शाहों का शाह ्रासीन है । जहान में जितने भी जीव हैं, वहीं से बेठे-बेठे वह सबका मुजरा लिया करता है | ५. ज्योतिरूप से यह श्रात्मतत््व हर घट में समाया हुआ्रा है; मेरा यह परमप्यारा तत्त्व एक त्तण भी इघर-उघर नहीं जाता ।




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