जीवन लीला | Jeevan Leela

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ होकर वह आगे वढती है। भुसकी मदद लेकर भेक बार में सुरतसे हजीरा तक हो आया हु। ताप्तीसे भगवान सूर्यनारायणके प्रेमके वारेमें पूछा जा सकता है और अग्रेजोने व्यापारके बहाने सुरतमें कोठी किस प्रकार डाली और बाजीरावने यही महाराष्ट्रका स्वातत्य अग्रेजोको कब सौप दिया, जिसके बारेसें भी पूछा जा सकता है। गोधघरा जाते समय जो छोटी-सी मही नदी मैने देखी थी, वही खभातसे कावी बदरगाह तक महापक कीचडका विस्तार किस तरह फैला सकती है, यह देखनेका सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है। पुवंकी महानदी और पद्चिमकी मही नदी, दोनोका कार्य विक्षेष प्रकारका है। सूर्या, दमणगगा, कोलक, अविका, विश्वामित्री, कीम आदि अनेक पडिचिम- वाहिनी नदियोका मीठा आतिथ्य मैने कभी न कभी चखा है। भुन्हें यदि अजलि अपंग न करू तो मैं कृतघ्न माना जाअगा। और जिस आजीके किनारे महात्माजीने छुटपनकी शरारते की थी, वह तो खास तौर पर मेरी अजलिकी अधिकारिणी है। वढवाणकी भोगावोके वारेमें मैने शायद कही लिखा होगा। किन्तु वह भोगावोकी अपेक्षा राणकदेवीके स्मरणके तौर पर ही होगा युजरातके बाहर नजर घुमाकर दूसरी नदियोका स्मरण करता हु, तब प्रथम याद आता है सबसे वडा ब्रह्मपुत्र । मुसका अुदुगम-स्थान तो हिमालयके भुस पार मानस-सरोवरके प्रदेशमें है । हिमालयके भुत्तरकी ओर बहते हु पानीकी अक अेक वूद जिकट्ठी करके वह हिमालयकी सारी दीवार पार करता है और पहाडों तथा जगलोके अज्ञात प्रदेशोमें बहता हुआ आसामकी ओर मुन्हें छोड देता है। बादमें सदिया, डिब्नुगढ, तेजपुर, गौहाटी, ढुब्नी आदि स्थानोको पावन करता हुआ वह बगाछलमें अुतरता है । और अुसे गगासे मिलना है, जिसी कारण वह कुछ दूरी तक यमूना नाम धारण करते हुअ आगे पद्मा बनता है। ' मितिहासके अुषाकाल ' से लेकर जापानियोके अभी अभीके आक्रमण तकका सारा जितिहास ब्रह्मपुत्रको विदित है। किन्तु जिस ताजे जितिहासके कभी प्रकरण तो मणिपुरकी जिम्फाल नदी ही वता सकती है। फिर भी जिस नदीको पूछने पर वह कहेगी कि मुझसे




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