विद्यापति की पदावली | Vidyapati Ki Padawali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिचय 'पहाउश, केतज्टा यादू नगेन्ड्नाव यु लिखते है विद्यापत्तिर जे. रुप जनुकरण आल, चोव दय कोन देगे कोन कविर तद्ठूप दर नाह।.... ताहॉरइ भाषा भौगिय-चूरिया, गडिया-गठिया, रुपनरख, छुन्दो बाघ, स्ावनभगी , दाव्द, उठ्मर का; उपसा तॉहारइ पदावली छइ़ते लड़या लोकमनो सोहन सैप्णवकान्यसमूद सजित हल । ? श्रीच्ेलोक्यनाध भट्टाचार्य, एस्‌० ए०, वो० एल ने जो लिया था उसका भाव देखिये--'विद्यापति और चडीटास की अतुलनोय प्रतिभा से समस्त नग-साहित्य उय्स्वल ओर सजाव हुआ हैं। वैप्याव गोविन्द- दास और ज्ञानदास से लेकर हिन्दू नकिमचन्द्र और बाह्य रवोन्द्रनाथ ठाकुर तक सच ही उनलोयों की आभा से आलोकित है; और उनलोगो का अजुकरण करके कविता-रचना में व्यस्त पाये जाते हैं ।*” फल यह हुआ कि विद्यापत्ति चगाकियों के रगरग से प्रवेश कर गये । सैकड़ों वर्षा तक लगातार वगालियों द्वारा गाये जाने के कारण इनके डागदेगीय पर्दों का रूप भी ढेठ बंगला हो गया । अब तो बगाली लोग यह सर्नधा भूल दो गये कि *विद्यापति चयसाली नहीं; सेथिल थे' । वंगाली साई अपनी कुशायर चुद्धि के लिये प्रसिद्ध हैं। उन लोगों ने हनका निवास-स्थान भी बंगाल हा से हँँढ निकाला । यहीं नही; पदिवसिंद” नासक एक बयाली राजा भी कही से ।टपक पढ़े--'रानी लगिसा देवी? भी मिल गइ यो सब अ्रकार से सिद्ध हो गया कि! दिद्यापति ठेठ वयाली थे 1 चेंगला १०८२० साल में ( स्वर्गीय ) राजकृप्ण मुखोपाध्याय ने पहले- पहल 'चड्डदर्शन' नामक पत्र में यह प्रकाशित किया कि 'विद्यापत्ति वगाली नहीं; मेधिल थे । इसके प्रमाण में उन्होंने उपयुंकत ताश्रपत्र आदि पद किये । फिर तो सारे घगाल में कोलाहल मच गया । विद्यापत्ति पर बंगाली लोग इतने फिदा थे कि उनका अन्यदेदीय सिद्ध होना थे सुनना नहीं चाहते थे | उस समय एक प्रसिद्ध चेंगला-लेग्वक ने यद अन्दाज लडाया था फि चिद्यापति वगाली ही थे--पहले व गालों लोग मिधिज्ञा सें विद्याध्ययन को द्




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