समकालीन हिंदी कविता | Samkalin Hindi Kavita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९१ ) बततमान में हो अपनी मागलिप्सा को तप्त वर लेना चाहत हैं-- गत एक विषस कह्पना ध्यय, पल पहा चुवा है घीत, प्रिय ! तुमहों मेंह है वतमान, है. प्राणी का समीत, प्रिये [ इस प्रकार इस धारा वे बविया बे काव्य मे भागवाद वा प्रयल स्वर सहज ही पाया जाता है । झास्तिश्ता की अभाव हिंदी माहित्य म सन्‌ १६३० ई० वे आसपास युत मानस मे वौद्धिकता की एव एसी लहर आई थी जा प्राचीन रूढियों को तोड़ने मे कटिवद्ध हागई थी । आस्तिवता का भाव नी भारतीय सस्दति की अत्यत प्राचीन परम्परा है, रस धार के प्रवाह म बह गया था । तत्वालीन ब्वि भी पारलीकिक्ता वी भपभा लौक्विता के सम्बंध वा ही समाज बे लिय हितकर मानने लगे थे । यहां बारण है प्रगतिवाटी कवियां ने आध्यात्मिकता का विरोध किया उद्धोने घमनन का आध्यात्मिकता वे काह्पनिक धरातल से उतारवर लौविवता के धरातल पर प्रतिप्टित करके ध्यावहारिक बनाने का प्रयास किया । किन्तु इस धारा मे कवियों में आस्तिकता के अभाव का कारण युगीन या सामभाजिय ने हाकर यक्तिपरक है। अपन ही व्यक्तिगत वारणो से इहोने ईश्वर और धम वे महत्व को नकारा । “वघ्चन' ने ईइ्वर पूजा का विराध करते हुये कहा ८ “सिनुज पराजय के स्मारक हैं, मठ, मस्जिद, गिरजाघर, श्राथना मत कर मत कर मत वर । श्रानरद्र शर्मा ने ईसवर का उस राजा वी भाति माना है जो मातव अधिकार पावर अपने कत्त यो का मूलकर अपयाय करने पर उतारु हो जाता है, उसा प्रकार ईदवर अपने रक्षक और “यायवारी रूप वो भूलकर जगत को पीडित कर रहा है । इसीलिये ता जगत म भीपण अस्त यस्तता फली हुई है - कोन सुनता है बरुण पुकार, किसे रुचता हैं हाहाकार, भूल गया है ईत्यर जग को, पा सादक श्रधिकार । भर गारसीप्रसाद सिंह तो ईश्वर का मत ही घोषित कर दते हैं-- मैं अपना झाप विधाता हूं, मेरा भगवान गया है सर ।' इन कवियों वा. यह अनास्था भाव कोई सुविचारितत निप्कप नहीं था, बरन्‌ एक क्षणिक भावेगा की. जो केवल व्यक्तिगत भावों और परिश्थितिया तक हो सीमित्त था, एक प्रतिश्रियामात्र था । इसलिये य इस प्रचत्ति पर जचस न रह सके और कुद ही वर्षों म बास्तिकता की ओर स्वत ही उमुख होगये । व




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