मनोरंजन पुस्तकमाला - भाग 6 | Manoranjan Pustakmala - Vi
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
244
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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धनाश्री--आजु हीं एक एक करि टरिहदौ ॥ टेक ॥:'
कै हमद्दी के तुमद्दी माधव श्रपन भरोसे लि,
हैं। तो पतित भ्रहैं। पीड़िन को पत्ते हू निस्तरिहीं। ।
झ्रबहीं। उघर नचन चाइत हैं तुम्हें बिरद बिलु करिहें। ॥।
कृत अपनी परतीत नसावत मैं पाया इरि हीरा |
सूर पतित तत्रही लै उठिहैं जब हंसि देहो बीरा ॥४॥।
इस बार सूरदास जी के पद पंडित, पंडितायिन, गौड़-
बाले तीनों ने सिल्कर गाए। साथ मे राग भरते के लिये
बूढ़ा, बुढ़िया भी मिलन गए और जब ताल सुर झच्छा जम
गया ता एकदम दशेनियों मे सन्नाटा छा गया। सब की
आँखे हरि चरणों मे श्रौर कान इनके गान मे । यो गायन
समाप्त होने पर “घन्य | घन्य !”” झ्ार “शाबाश | शाबाश !”?
की आवाज झर कभी “खूब अस्त बरसाया !”” का शब्द
भीड़ में से बारंबार उठकर संदिर मे गूजता हुआ बाहर तक
प्रतिध्वनित होने जगा कितु झपकर सिर झुका लेने के सिवाय
पंडित जी ने कुछ उत्तर न दिया । वद् फिर समय पाकर
भगवान् जगत के नाथ की ये स्तुति करने लगे--
“ है झशरण शरण, इससे बढ़कर शोर क्या कहूँ ? जो
कुछ मैंने भ्रभी निवेदन किया है वह मद्दात्मा सूरदास जी से
उधार लेकर । उनकी सी योग्यता सुभ्ह अर्किंचन मे कहाँ है
जा मैं अपनी विनय झआपन्हों सुना सकू ?. भला उनका ते
आापसे कुछ दावा भी था । दावा था तब्रही वह झ्ापके
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