साहित्य की समस्याएं | Sahitya Ki Samasyaen

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Sahitya Ki Samasyaen by शिवदान सिंह चौहान - Shivdan Singh Chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नये भारत में साहित्य के सान-पृल्यों का प्रबम श व्यक्त निया । है, इतना व्यय सम्भव हे कि उन्होंने सदा जान-यूक्ककर या पूर्व-निश्चय द्वारा इन गरगों यो श्रशिव्यकति देने के लिए साहित्य की रनना न की हों आर किसी व्यवित्तेगत सनुभय को मूत अभिव्यवित देते रामय ये मूल्य श्रनिवायंत: प्रतिथिस्वित हो गये हो । यह सन राग हे, क्योंकि लेखक का विश्व-बोध भी देश-काल रीमि । ही होता है और जो भावनाएं श्रोर विचार युग-मानस को म्रालोजित करते हे उससे कोई भी रचना- कार म्प्रभावित नही रहता । साथ ही यहू भी सत्य है कि हर देव गौर काल से गयें- पुराने का संघर्ष निरन्तर जारी रहता है और जन-गानस सें नये या पुराने विचार का समधेन करने वाले पररपर-विशेधी विचार प्रचलित रहते है । इस विचार-सघपे के पुरे ऐतिहारशिक मम को बुद्धितल पर न समकझने वाले लेखकों ने भी यदि नये श्रौर प्रगति- शील विचारों को झ्पयी रचनाओं में प्रतिविस्वित किया तो इसका शरथे है फि उनवाएं हृदय पुराने के प्राकर्षण के बावजूद युग-जीवन की प्रगतिशील सराकांशायों के प्रति सहज संबंदनशील था श्ौर वे श्रपनी रबनाशों में उन मूल्यों थी अआप्ति के लिए संघर्ष वार रहे थे जो जीवन-वास्तव की मॉग बन चके थे । स्पतन्नता प्राप्ति रे पहुलें के श्राधुनिक भार- तीय साहिए में कुछ ऐसा ही हुमा । इसलिए एक दाताब्दी से मारे श्रेष्ठ रचनाकार भारतीय जनता की प्रगत्तिणीत साकांक्षाओं को गू्ते झभिव्यवित देकर जिन मूलगों की प्राप्ति वे दिए जाननझनजान मो रॉंघर्प नारते झायें है, श्राण उन्हें स्वीकार भर कर सेना जरूरी है । दिमाग को खरोंचकर या तारपना है मूल्यों की सूष्टि नही होती । यें मूरग एक दीर्घकालीन संघर्प, झाजादी की प्रारित सौर नये भाररा थे निर्माण की समस्या से पैदा हुए है, उन्हें स्वीकार करने का मर्थ है कि हुम झरने दाधित्वों के शति सचेत है और बिसी भी गाकर्षक सामयिक फौशन या विदेश से झाई मागवढ्रोही प्रवृत्ति के पीछे पागल होकर सपना दिशा-ज्ञान सोने के लिए तैम्रार नहीं है, जता कि कुछ लोग कर रहे हैं । मस्तत: यह साहित्यकार के अपने व्यक्तित्व की सुरक्षा का. थी परन है, जो गलत प्रवृत्तियों के प्रभाव में पड़कर अपनी प्रतिभा का दुसपरयोग करके स्वयं अपना गला घोंट डालता है । छ्लासो न्मुखी पनीवाई की विषृतियों से. माकासत पारुचात्य देशों में मूल्यों का हज से विभटन हो रहे! है सौर नहीं के साहित्यकारों म्ौर कलाकार में येपक्तिक स्वतरवता आर रयूना- कार की ईमानबारी के मास पर सेलिन दुष्ट्रि से मातवुदोही,. राज़नीपिंक दृष्टि से प्रति क़ियाबाड़ी तथा न्यस्त रनाथों नी पोषक मवत्तियों जोर पकड़ रही हू । शाहिंत्य में मूह्यीं का विधठन सभाज-जीवत के रोमअर्त ठया छासोर्मुखी होने की ही निशानी है). एवत- न्नूता के बाद हमारे 5 सहन से तरुण लेखकों सौर कलाकारों को पंथ नष्ट करते में पारकारय साहित्य की इन प्रबतियों का बड़ा हाथ रहा है. अदयपि हमारे महाँ का. सुगाज-जीवेन, हरानसनली है दकरसीत नहीं है, विकासशील है मर, जो बे पस्य,.सौर उग्णता उसमे है. सह गुलामी अर मल [ काम उनक ह। संमंप्र रूप से इस वैषभय गौर रुग्पाता! मैं वृद्धि गद्दी हो रही, बह्कि धीरे-धीरे कमी हों रही है, क्योंकि हुम नये परत के निर्माण की झोर बढ़ रहे हूँ। मिंत्ु फिंए भी तरकालीने परिम्थिति को ही सिरन्तस, सह मात,




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