जैनग्रंथ - प्रशस्ति - संग्रह | jain Granth Prashitit Sangra (1954)ac 3944
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
413
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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प्रशस्ति संग्रहमें प्रंथ-कर्ता इन विद्वानों श्वादिका संक्षिप्त परिचय क्रमसे
नीचे दिया जाता हैः---
इस प्रशस्तिसंप्रहकी प्रथम प्रशस्ति “न्यायविनिश्वयधिवरण' की
है, जिसके रचयिता श्राचा्य वादिराज हैं । बादिराज द्राविडसंघस्थित
नन्दिसंघकी श्वरुगल नामक शाखाके चिद्वान थे, श्रीपालदेवके प्रशिष्य तथा
मतिसागरके शिष्य थे । सिंहपुराघीश चालुक्य राजा जयसिंहकी सभाकि वे
प्रदयातवादी और उक्र राजाके द्वारा पूजित थे । प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हींके राज्य
कालमें रचा गया है । प्रशस्तिमें उनकी विजय कामना की गई हे । इस
अंथके श्रतिरिक्र ्रापकी अन्य रचनाएँ भी उपलब्ध हैं, जो प्रायः प्रकाशित हो
खुकी हैं, श्रौर वे हैं-प्रमाण निर्णय, पाश्वनाथचरित्र, यशोघरचरित्र;
एकीभावस्तोत्र,'झष्यात्माष्टकस्तोत्र । इनके सिवाय मल्लिवेण प्रशस्ति नामक
शिलावाक्यमें 'श्रेलोक्य दीपिका नामक अन्थका भी नामोर्लेख मिलता है
जो श्रभी तक झनुपलब्ध हे ।
'ाचार्य वादिराजका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका उत्तराथ है,
क्योंकि उन्होंने अपना पारवेनाथ चरित्र शक सं० ९७ (चि० सं० १०८२)
में बनाकर समाप्त किया है ।
दूसरी प्रशस्ति “ध्मरतनाकर” की है । जिसके कर्ता चाय जयसेन
हैं। जयसेनने प्रशस्तिमें भ्पनी जो गुरु परम्परा बतलाई है वह यह है कि
जयसेनके गुरु भावसेन, भावसेनके “गुरु गोपसेन, गोपसेनके गुरु शांतिंषेण
व्पौर शांतिषेणके गुरु ध्मसेन । ये सब श्ाचायं लाडवागड़ संघके विद्वान
हैं, जो बागढ़ संघका ही एक उपमेद है । बागढसंघका नाम 'वाग्वर' भी है.
ब््ौर बद सब वागढदेशके कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, श्र इसलिये
देशपरक नाम है ।
शाचार्य जयसेनका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका मध्य भाग जान
पढ़ता है । यह श्राचार्य असतचन्द श्र यशस्तिलकचम्पूके कर्ता सोमदेव
(शकः सं० ८८ १-वि० सं० १०११) से बादके विद्वान हैं । घर्मरत्नाकरके
अंतमें पाई जाने वाली प्रदस्तिका अस्तिम पथ लेखकॉकी कृपासे प्रायः 2
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