जैनग्रंथ - प्रशस्ति - संग्रह | jain Granth Prashitit Sangra (1954)ac 3944

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jain Granth Prashitit Sangra (1954)ac 3944 by परमानन्द जैन - Parmanand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) प्रशस्ति संग्रहमें प्रंथ-कर्ता इन विद्वानों श्वादिका संक्षिप्त परिचय क्रमसे नीचे दिया जाता हैः--- इस प्रशस्तिसंप्रहकी प्रथम प्रशस्ति “न्यायविनिश्वयधिवरण' की है, जिसके रचयिता श्राचा्य वादिराज हैं । बादिराज द्राविडसंघस्थित नन्दिसंघकी श्वरुगल नामक शाखाके चिद्वान थे, श्रीपालदेवके प्रशिष्य तथा मतिसागरके शिष्य थे । सिंहपुराघीश चालुक्य राजा जयसिंहकी सभाकि वे प्रदयातवादी और उक्र राजाके द्वारा पूजित थे । प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हींके राज्य कालमें रचा गया है । प्रशस्तिमें उनकी विजय कामना की गई हे । इस अंथके श्रतिरिक्र ्रापकी अन्य रचनाएँ भी उपलब्ध हैं, जो प्रायः प्रकाशित हो खुकी हैं, श्रौर वे हैं-प्रमाण निर्णय, पाश्वनाथचरित्र, यशोघरचरित्र; एकीभावस्तोत्र,'झष्यात्माष्टकस्तोत्र । इनके सिवाय मल्लिवेण प्रशस्ति नामक शिलावाक्यमें 'श्रेलोक्य दीपिका नामक अन्थका भी नामोर्लेख मिलता है जो श्रभी तक झनुपलब्ध हे । 'ाचार्य वादिराजका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका उत्तराथ है, क्योंकि उन्होंने अपना पारवेनाथ चरित्र शक सं० ९७ (चि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया है । दूसरी प्रशस्ति “ध्मरतनाकर” की है । जिसके कर्ता चाय जयसेन हैं। जयसेनने प्रशस्तिमें भ्पनी जो गुरु परम्परा बतलाई है वह यह है कि जयसेनके गुरु भावसेन, भावसेनके “गुरु गोपसेन, गोपसेनके गुरु शांतिंषेण व्पौर शांतिषेणके गुरु ध्मसेन । ये सब श्ाचायं लाडवागड़ संघके विद्वान हैं, जो बागढ़ संघका ही एक उपमेद है । बागढसंघका नाम 'वाग्वर' भी है. ब््ौर बद सब वागढदेशके कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, श्र इसलिये देशपरक नाम है । शाचार्य जयसेनका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका मध्य भाग जान पढ़ता है । यह श्राचार्य असतचन्द श्र यशस्तिलकचम्पूके कर्ता सोमदेव (शकः सं० ८८ १-वि० सं० १०११) से बादके विद्वान हैं । घर्मरत्नाकरके अंतमें पाई जाने वाली प्रदस्तिका अस्तिम पथ लेखकॉकी कृपासे प्रायः 2




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