जैन - ग्रन्थ - प्रशस्ति - संग्रह भाग - 2 | Jain - Granth - Prashasti - Sangrah Bhag - 2

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Jain - Granth - Prashasti - Sangrah Bhag - 2  by परमानन्द जैन - Parmanand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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' प्रस्तॉचना - ७ : 5 कवि राजशेखर ने.(८८० से ६२० ई०) अपनी काव्यमीमासा मे अनेक स्थलो पर अपभ्र श का निर्देश किया है । साथ ही अपने से पूर्ववर्ती कब्रियो की. तरह स्वय भी सस्क्ृतं प्राकृतादि भाषाओं के समान अपभ्र श को भी पृथक साहित्यिक भाषा स्वीकार किया है तथा ' काव्य-पुरुष के शरीर का कथन करते हुए ससस्‍्कृत को मुख, प्राकृत को बाहु, अपभ्र ज को जघन--मध्यभाग, पैशाची को पैर, और मिश्र को उरस्थल बतलाया है! और तदनुसार राजा की काव्य-सभा मे सस्कृतकवि उत्तर, प्राकृृतकवि पूर्व, अपभ्र शकवि पश्चिम, और पेणाची कवि दक्षिण मे बैठे? ऐसी व्यवस्था का उल्लेख किया है। कवि ने दूसरे स्थल पर सोराष्ट्र और त्रवणा देश को झ्रप» श भाषा भाषी प्रकट किया३ है। सरक्ृत प्राकृत और अपभ्र-श भाषाओं के क्षेत्रका निर्देश करते हुए मरूु (मारवाड) टवक (ठवक) पजाब का एक भाग भादानक--पजाब के फेलम जिले के भद्गावती देशो मे अपभ्र श के प्रयोग होने का सकेत भी किया* है। महाकवि पुष्पदन्‍्त ( वि० स० १०१६ ) ने अपने 'महापुराण' मे सस्क्ृत और प्राकृत भाषा के साथ अ्रपशञश्रश का भा समुल्लेख किया है। उस काल मे सस्क्ृत प्राकृतादि के साथ अपश्रश का भी ज्ञान राजकुमारियों को कराया जाता था+*। ल्‍ अमरचन्द ने तो अपभ्रश की गणना षडभाषाओ मे की है-- सस्कृत प्राकृत चव शौरसेनी च मागधी । ः . पैशाचिकी चांपञ्नश षड्‌ भाषा परिकीतिता. ॥॥ --काव्य कल्पलंता बृत्ति पृ० ८ अपभ्रश भाषा के उल्लिखित ये भिन्‍न भिन्‍न निर्देश उसके विकास मे निम्न बाते फलित करते है और उसकी ऐतिहासिक कडी जोडने मे सक्षम है-- प्रारम्भ मे अपभ्र श का श्र्थ बिगड़ा हुआ रूप था। उस समय भारत मे “विश्रष्ट शब्द का प्रयोग होते लगा था और नाव्यकार के समय अपश्र श बीजरूप से विद्यमान थी और उसका प्रयोग आभीर एवं शबर आदि वनवासी जातियो मे प्रयुक्त किया जाता था, पर उस समय तक उसका कोई साहित्यिक रूप पल्‍लवित नही हुआ था । किन्तु छठो शताब्दी मे अपभ्रश का प्रयोग वेयाकरणो और आलकारिको के ग्रन्थो मे भी उल्लिखित होने लगा और वह साहित्यिक भाषा का सूचक भी माना जाने लगा इतना ही नही, किन्तु उसका स्वतन्त्र रूप भी विकसित होने लगा था और जो दण्डी तया भामह जैसे आलकारिक साहित्यको की स्वीकृति भी पा चुका था, इस तरह वह ८ वी शताब्दी मे सर्वसाधारण के बोल-चाल की भाषा मानी जाने लगी और उसका विस्तार सौराष्ट्र से लेकर मगध तक हो गया था* | हा देशभेद के कारण उससे कुछ भिन्नता अवश्य झ्रा गई थी, किन्तु काव्यादि रचना मे आभीरादि की अपभ्र श का ही प्रयोग होता था। ११वीं से लेकर १३ वी शताब्दी तक के कवियो--मम्मट, वाग्भद्ठ, हेमचन्द्र, १ “अहो इलाथनीयो5सि । शब्दाथौं ते शरीर, सस्कृत मुख, प्राकृत बाहु, जघनमपश्रश , पैशाच पादौ उरो मिश्रम्‌ ।! काव्यमीमासा अ० ३ । २. मध्येसभ राजासनम्‌ । तस्य चोत्तरत सस्कृतकवयों निविश्ञेरन्‌ ।...पूर्वेण प्राकृता कवय .।...पश्चिमेनाप अ्रशिन कवय . दक्षिणतों भूतभाषाकवय ।” --काव्यमीमासा श्र० १० है ३ सापश्रशप्रयोगा सकलसरुभुवष्टक्क्रभादानकाश्च । काव्यमीमासा, अ० १० ४ सौराष्ट्र अवणाद्या ये पठन्त्यपित सौष्ठवम्‌ । --काव्यमीमासा अ० ७ ५ सक्‍कउ पाये पुण अवहसउ, 'वित्तड उप्पाइड सपससउ | ' --महापुराण ५-१८-६ ६ आभौरी भाषापश्रंशस्था कथिता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते ।. -- काव्यालकारटीका पृष्ठ १५




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