चौबे का चिट्ठा | Chobe Ka Chithatha(1929)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
146
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चौवेजीका परिचय ।
ब्ूहतरे लोग चिदानन्दकों पागल कहते थे। उसकी चित्तवृत्ति कुछ विरू-
क्षण प्रकारकी थी । उसकी बातचीत, कामकाज, रहन-सहन आदि
सभी यार्तें अनोखी थीं। यह वात नहीं कि वह कुछ लिखा पढ़ा नहीं था ।
उसे कुछ अेंगरेजी और कुछ संस्कृत आती थी। किन्तु जिस विधासे भथोपा-
जन न हो, वह विद्या किस कामकी ? उसे सें विद्या ही नहीं कहता । 'साहे
कोई केसा ही मूर्ख क्यों न हो, भले ही उसे लिखने पढ़नेके नाम केवल
अपने दस्तखत करना ही लाता हो; किन्तु यदि उसकी साहब-सूबाओं
तक पहुँच हो और उसे झूठी-सच्ची बातें बनाकर अपना काम निकारूना आता
हो, तो मेरी समझमें वह पण्डित है और चिदानन्द जैसा विद्वान्, जिसने
बीसखों पुस्तकें पद डाली हों, बिछकुछ मूखे है ।
चिदानन्दको एक बार नौकरी मिल गईं थी । एक साहब बहादुरने उसकी
सँगरेजी सुनकर अपने आफिसर्म छर्क रख लिया था; परन्तु चिदानन्द्से उसकी
कर्की न हुई । वह आफिसमें जाकर आफिसका काम नहीं करता था । भाफि-
सके रजिष्टरोंमें कविता लिखता था, भाफिसकी चिठहियॉमें ' शेक्सपियर ”
नामक किसी लेखकके वचन छिख रखता था और बिल-बुकोंके प्रष्टॉपर चित्र
बनाया करता था । एक बार साहबने उससे माहबारी पे-बिल॒ बनानेके छिए
कहा । चिदानन्दने बिल-बुकपर एक चित्र बनाकर तैयार कर दिया । उसका
भाव यह था कि बहुतसे भिक्ुक साहबसे मिक्षा मॉग रहे हैं और साहब
बहादुर उनके आगे दो-दो चार-चार पैसे फेंक रहे ”! चित्रके नीचे लिखा
था-'' वास्तविक पे-बिछ ।” साहबने इस अतिशय नूतन ' पे-बिल' को
देखकर चौबेजीको उसी दिन अपने यहाँसे बिना कुछ कहे-सुने बिदा कर
दिया !
बस, चिदानन्दकी 'चाकरीका अन्त हो गया । इसके बाद उसने और कोई
नौकरी नहीं की । जरूरत भी नहीं थी । दादीके फन्देमें तो वह कभी फैँसा
ही नहीं । जहीँ वह रहता वहीं यदि भरपेट भोजन और छोटा मर भंग
सिल गईं, तो फिर उसे और किसी चीजकी दरकार न थी । उसके रददनेका
ईिकाना न था, जहॉ-तहाँ पड़ा रहता था । कुछ दिन वह मेरे घरपर भी
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