चौबे का चिट्ठा | Chobe Ka Chithatha(1929)

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Chobe Ka Chithatha(1929) by पं रूपनारायण पांडेय - Pt Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चौवेजीका परिचय । ब्ूहतरे लोग चिदानन्दकों पागल कहते थे। उसकी चित्तवृत्ति कुछ विरू- क्षण प्रकारकी थी । उसकी बातचीत, कामकाज, रहन-सहन आदि सभी यार्तें अनोखी थीं। यह वात नहीं कि वह कुछ लिखा पढ़ा नहीं था । उसे कुछ अेंगरेजी और कुछ संस्कृत आती थी। किन्तु जिस विधासे भथोपा- जन न हो, वह विद्या किस कामकी ? उसे सें विद्या ही नहीं कहता । 'साहे कोई केसा ही मूर्ख क्‍यों न हो, भले ही उसे लिखने पढ़नेके नाम केवल अपने दस्तखत करना ही लाता हो; किन्तु यदि उसकी साहब-सूबाओं तक पहुँच हो और उसे झूठी-सच्ची बातें बनाकर अपना काम निकारूना आता हो, तो मेरी समझमें वह पण्डित है और चिदानन्द जैसा विद्वान्‌, जिसने बीसखों पुस्तकें पद डाली हों, बिछकुछ मूखे है । चिदानन्दको एक बार नौकरी मिल गईं थी । एक साहब बहादुरने उसकी सँगरेजी सुनकर अपने आफिसर्म छर्क रख लिया था; परन्तु चिदानन्द्से उसकी कर्की न हुई । वह आफिसमें जाकर आफिसका काम नहीं करता था । भाफि- सके रजिष्टरोंमें कविता लिखता था, भाफिसकी चिठहियॉमें ' शेक्सपियर ” नामक किसी लेखकके वचन छिख रखता था और बिल-बुकोंके प्रष्टॉपर चित्र बनाया करता था । एक बार साहबने उससे माहबारी पे-बिल॒ बनानेके छिए कहा । चिदानन्दने बिल-बुकपर एक चित्र बनाकर तैयार कर दिया । उसका भाव यह था कि बहुतसे भिक्ुक साहबसे मिक्षा मॉग रहे हैं और साहब बहादुर उनके आगे दो-दो चार-चार पैसे फेंक रहे ”! चित्रके नीचे लिखा था-'' वास्तविक पे-बिछ ।” साहबने इस अतिशय नूतन ' पे-बिल' को देखकर चौबेजीको उसी दिन अपने यहाँसे बिना कुछ कहे-सुने बिदा कर दिया ! बस, चिदानन्दकी 'चाकरीका अन्त हो गया । इसके बाद उसने और कोई नौकरी नहीं की । जरूरत भी नहीं थी । दादीके फन्देमें तो वह कभी फैँसा ही नहीं । जहीँ वह रहता वहीं यदि भरपेट भोजन और छोटा मर भंग सिल गईं, तो फिर उसे और किसी चीजकी दरकार न थी । उसके रददनेका ईिकाना न था, जहॉ-तहाँ पड़ा रहता था । कुछ दिन वह मेरे घरपर भी




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