बोधसागर | Bodh Sagar

Bodh Sagar by श्री कवीर साहिव - Shri Kavir Sahiv

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ कमालवोष | १४९१३ कि कौन ठौर घर रहे निदाना । सो समर्थ मे हिकरे परमना सा में कहूँ शिप्यनक आगे । सुरत शब्द चरन चित्त लागे॥ एती आगम कहीं । चरण टेकि प्रभु करों निददागें ॥ सतगुरु धचन । सुनो कमाल निजकहोंविचाग । जब सतगुरु सुखते शब्द उच कलियुग आया कहूँ प्रमाना। वांधो गठमें होय अस्थाना। सुझृत अंश प्रकट संसार । अंश लोकते आये हमारा. सा घमदास घर लेई अततारा । उसका पंथ चले संसार । वश व्या।लेस अविचल राजा । साइ जीवनका करे है काजा। उनका वीरा शब्द जो पवि । सोई हसा लोक सिधावि। और जीव बांचे नहि के । कोटिक ज्ञान करे पुनि जाई । आगम तुमको कहूँ समझाई । कुदरतकमाल सुनो चितलाई। जोइ इत्म पुरुषकें पासा । सोई वंशमें होय प्रकाशा । बिना फकीरी इटम नाहि जाने । युक्ति बिना योगी . वउराने | पुक्ति सारकोइ हँसा पावे। लोकरि जाय बहरि नहिंआते। आवत जात मिलि रहे समाई। बिना फकीर इत्म कहैँ पाइ। । | । । । । । । ं | । सतगुरू विना युक्ति नहिं आवे। बिना युक्ति फकींरी पछतावे ॥ पांच तीनको करहिं निरासा । सोई फकीरी इरम जिन पास छगन तत्त्वकी युक्ती जाने । सोई योगी है युक्ति पराने ॥ नहिं तो कथनी कर्थाइअपारा । बिल परिचय बड़े संसारा ॥ हरा-कथनी करनी चहुराइ कीना पांचों पार । वेश छाप गुरु युकती पावे इलमफकीरीसार ॥ कमाल वचन परन टेकि हम करें निहोरा । हमरे जिवगुरु होय निवेरा बढ दुख होई। महा ज्रास दुख व्यांपे सोई




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