भवभूति की कृतियों का नाटयशास्त्रीय विवेचन | Bhavbhuti Ki Kratiyo Ka Natyasastriya Vivechan

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Bhavbhuti Ki Kratiyo Ka Natyasastriya Vivechan by डॉ राजलक्ष्मी वर्मा - Dr. Rajlakshmi Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परवर्ती ग्रन्थों में उद्धृत ये अश किन्हीं नाट्य-विषयक स्वतत्र ग्रन्थों से सम्बद्ध हैं या नहीं, इस सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । परन्तु इतना अवश्य है कि बहुत प्राचीन काल से आचार्य भरत के पूर्व ही नाट्य-विद्या पर स्वतत्र ग्रन्थों का प्रणयन होना आरम्भ हो गया था । आचार्य भरत और उनका नाद्यशास्त्र नाट्यशास्त्रीय ग्रन्यों के निर्माण की मूर्त परम्परा का प्रवर्तन आचार्य भरत के 'नाट्यशास्त्र' से हुआ । उनके विषय में प्राय सभी दिद्वानों का अभिमत है कि वे महान्‌ प्रतिभाशाली तथा युग प्रवर्तक महापुरुष थे । उनका “नाट्यशास्त्' एक विश्वकोशात्मक रचना है, जिसमें अनेक शिल्पों, नानाविध कलाओं और विभिन्‍न विद्याओं का दिग्दर्शन होता है । आचार्य भरत का व्यक्तित्व सस्कृत साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है । नाट्यशास्त्र के निर्माता के रूप में उमका नाम विश्वसाहित्य में अमर है । उनका यह महान्‌ अन्य, चायें वेदों का दोहन कर पञ्चम वेद के रूप में विश्वुत है और अपने निर्माता के यश एवं गौरव को सुरक्षित बनाये हुए है। भरत किसी सम्प्रदाय, शाखा या चरण का नाम न होकर व्यक्ति विशेष का नाम था । उनके बाद उमकी परम्परा को आगे बढाने वाले उनके सौ पुत्रों या शिष्यों द्वारा उन्हीं के नाम से उसका प्रचलन हुआ । व्यक्ति विशेष के लिए भरत शब्द का प्रयोग अनेक परवर्ती ग्रन्थों में देखने को मिलता है । इस प्रकार के ग्रन्थों में मुख्य रूप से महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीयम्‌' और नाटककार भवभूति के “उत्तररामचरितम” का नाम उल्लेखनीय है । कालिदास ने विक्रमोर्वशीयम्‌ के एक सर्दर्भ में नेपथ्य से देवदूत द्वारा कहलाया है किलेखा,




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