सम्मलेन पत्रिका - भाग 56 | Sammelan Patrika - Vol 56
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
204
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
ज्योति प्रसाद मिश्र - Jyoti Prasad Mishra
No Information available about ज्योति प्रसाद मिश्र - Jyoti Prasad Mishra
राम प्रताप त्रिपाठी शास्त्री - Pratap Tripathi Shastri
No Information available about राम प्रताप त्रिपाठी शास्त्री - Pratap Tripathi Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कबीर के काव्य में रस श्ड
प्रशान्त सागर में अहंता, ममता की उमियों का अन्तर्भाव हो सकता है, सागर का अन्तर्माव
उभियों में नहीं हो सकता। इसीलिये आचाये अभिनव गुप्त ने इतर रसों को शान्त रस की
विकृतियों के रुप में स्वीकार किया है।
कबीर में 'शान्तरस' की स्थिति स्पष्ट है । इसे प्रारंभ मे ही देख आये हैं। भक्तिरस
के अन्तर्गत शान्ति-रति की चर्चा करते हुए हमने उनकी वाणियों से उदाहरण भी दिये हैं। अब
प्रदन यह है कि कबीर मे मक्तिरस प्रधान माना जाय या शान्त रस । हमारा निवेदन है कि
कबीर में शान्त रस हीं प्रधान है। भक्तिरस के अन्य भमेदों--प्रीति (दास्य), सख्य भौर वत्सल
-के उदाहरण बहुत कम हैं। शान्ति-रस और मधुरा रति के उदाहरण ही अधिक है । इसमे
शान्त रति तो शमभाव ही! है और उससे शान्तरस को निष्पस्ति वैष्णव आचार्यों मी मानी है ।
'मघुरा रति' के वर्णन मे कबीर का साध्य रति-जनित आनन्द नहीं है वे अपने प्रिय के स्वरूप
में अन्तर्लीन हो जाना चाहते हैं। बे अपने संसारी मन को अन्तर्मुख करके परमतत्व में मिला
देना चाहते हैं। उनका लक्ष्य एकता, अद्वैतता, पूर्णता, समचिन्तता या शून्यता कीं उपलब्धि
है। अमेद की अन्तिम निष्ठा तक पहुँचना है। अविचल, शुद्ध और दृढ़-प्रेम माध्यम है। वे
कहते हैं--
पूरा मिल्या तब सुध उपज्यो तन की तपनि बुझानी।
कहे कबीर भव-बंघन छू जोतिहि जोति समानी॥।--श्र० पु० ११।.
इसके अतिरिक्त कबीर-काव्य की प्रवृत्ति नि्वेदपरक है। मन का नियमन, संसार की
असारता, तृष्णादि वृत्तियों का शमन, अहंकार का विसर्जन, माया का विध्वंसन आदि की
निरतर चर्चा से उनका निवृत्तिमूलक स्वर स्ष्ट है । उन्होंने विरह की पीड़ा व्यक्त करनेवाली
साखियों से कही अधिक साखियाँ ससार की असारता और विषय-सुख की निस्सारता दिखाने
के लिये लिखी है। इससे यह निःसकोच भाव से कहा जा सकता है कि कबीर के काव्य मे
दान्तरस प्रधान है। वैराग्य एव तत्वज्ञान-जनित नि्वेदवृत्ति की व्याप्ति अधिक है। साथ ही'
समचित्तता की प्राप्ति की बात मी कहीं गई है ।
इस प्रसग को समाप्त करने के पूर्व दो बातें और कहनी हैं। कुछ विद्वानों ने कबीर
के काव्य मे अद्मुत और वीर दो अन्य रसो का सकेत किया है। 'अद्मुत रस' उनकी उलटवासियो
मे और वीररस उनके सती और शूर की महिमा निरूपण करने वाली साखियो मे लक्षित किया
गया है। हम इन दोनो की ही स्थिति नही मानते। अद्मुतरस में जिस्मय या आशइचये स्थायी
होता है। उलटवासियो मे कर्विं का म्तव्य (प्रतीकों की व्याख्या से) प्रकट हो जाने पर आदचयें
का परिहार हो जाता है। साथ ही, इनमे प्रतिपादय विषय अध्यात्म ही है। यदि ऐसा मान
लिया जायगा तो विरोधामास अलकार मे भी अद्भूत् रस मानना पड़ेगा। उलटवासियों का
पाठक यह जानता है कि इसमें कुछ गूढ़ बात कही गई है । इसी प्रकार जहाँ कबीर ने साधक
को शूर-वीर के रूप में निरूपित किया है, वहाँ वीर रस की स्थिति नहीं मानी जा सकती । इन
चेज-भावपद, दाक १८९२]
User Reviews
No Reviews | Add Yours...