जातिभेद का उच्छेद | Jaatibhed Kaa Uchchhed

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ जाति-मेद का का श्राधार ले कर साम्यवादी लोग कहते हैं कि किसी भी प्रकार के दूसरे सुधारों के पूर्व झार्थिक सुधार होना छावश्यक है उनमें से प्रत्येक का खण्डन किया जा सकता है । क्या एक मात्र श्यार्धिक उद्देश्य से ही मनुष्य सब काम करता है ? साम्पत्तिक शक्ति ही एक मात्र शक्ति है इस बात को मानव-समाज का अध्ययन करने वाला कोई भी मनुष्य मानने को तेयार नहीं । साघु-महात्माओं का सबसाधारण पर जो शासन होता है वह॒इस बात को स्पष्ट कर देता है कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति भी बहुधा शक्ति और अधिकार का कारण बन जाती है । भारत में करोड़ों लोग कट्टाल साधुओं आर फ़कीरां की आज्ञा क्यों मानते हैं ? भारत के करोड़ों कज्लाल अपना ँगूठी-छूल्ना बेच कर भी काशी ओर मका क्यों जाते है ? भारत का इतिहास दिखलाता है कि मज़हव एक बड़ी शक्ति है । भारत में सबे साधारण पर पुरोहित का शासन मजिस्ट्रेट से भी बढ़ कर होता है । यहाँ प्रत्येक बात को यहाँ तक कि हड़तालों झोर कॉसिलों के चुनाव को भी बड़ी आसानी से मज़हवी रजत मिल जाती है। मज़दब का मनुप्य पर कितना प्रभुत्व रहता है इस का एक उदाहरण रोम के प्लीबियन हैं । उनके उदाहरण से इस विषय पर बड़ा भारी प्रकाश पड़ता है । रोमन प्रजातन्त्र के अधीन उच्च शासनाधिकार में भाग प्राप्त करने के लिए प्लब लोगों ने युद्ध किया था जिस से उन को एक प्लीबियन प्रति- निधि भेजने का अधिकार मिल गया था। इस प्रतिनिधि को प्लीबियनों की क्रोमिटिया सेण्टूरिरटा नाम की एक समिति चुनती थी । वे अपना कॉसिल प्रतिनिधि इस लिए चाहते थे




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