कैदी की पत्नी | Kaidi Ki Patni

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Kaidi Ki Patni by रामवृक्ष बेनीपुरी - Rambriksh Benipuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नर चोर उपो पाये मी थे उसके ना. सहन पर उस रस कस ष्क्ग बे भय कं, डे न श स् ता 1 कक दर न डॉट कर कहें ब- ब्श चरें त ध सघन 4 (, नोट सम मन नल धर रहे हूं उधर |” वर दखल कया नहीं थे १ सिर 2 परत एस से मं सिरजह पदनें, 2थ में घास को लाल सूटदार हो गे यद एक अपरचित ध्यादिसी आ रहा था | लष्िन उसको संसिस सं यह बात उस दिन नहीं आई कि घह खड़ी कसा सा रहा हए ? सर उसे वह सलन रख लग, तो कया होगों ९ स्‍सको रन न्द्ष्ी देखकर तो उसके सन में उत्कंठा जगी थी. यह छादा रे ' पसे घोडा वनाऊँ, सवारी करू , दो सकी चादी से सदी टी मूंठ तो ठोक घोड़े के सिर की तरह थी। उफ, कसा काना! घोड़ा बनता उसका, मन-ही-मन ऐसा सोचसी, पह्दनानी, पायी का थिगडेल रुख देखकर चुपचाप घर को ब्योर रखाना हम. ख़ार गुस्से मं यहां तक ठान लिया कि सत्र सावन नी के कस परे भी बगीचा नहीं त्ावेगी | गया सोचती-पिसस्ती घर पहुंची स्ीर दादी को शाएट मं जाफर 14 नस्व रोने लगी । जया घायुजा स्‍ सार है हू १15




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