हमारी - उलझन | Hamari Uljhan

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Hamari Uljhan by श्री भगवती चरण वर्मा - Shri Bhagwati Charan Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिप्रदण और दान १३ अपनी पत्नी तक दान में दे देते थे। और इस दानवीर हिन्दू समाज का नैतिक पतन भी इतना अधिक हुआ कि हजारों बर्ष से हिन्दू दूसरों की शुढामी कर रहे हैं । दान देने वाढछे को जितना अधिक गिराता है उससे अधिक छेने वाढे का गिराता है, और इस लिए दान अपने प्रति तो अपराध है ही, उससे अधिक समाज के प्रति अपराध है। मैंने ऐसे मनुष्यों को देखा दे जो कोई काम नहीं कथ्ना चाहते जो जीवित रहने के लिए परिश्रम नहीं करना चाहते, जिन्होंने सिक्षा- वृत्ति को अपनी झआाजीविका बना ढो है, जो शरीर से नहीं बल्कि आत्मा से अपाहिज बन गए हे ! और मैं समझता हूँ कि ऐसे छोग मनुष्यता के नाम पर कलडट्ठ हैं । पर सवाछ यह है कि ऐसे लोगों को जन्म किसने दिया ? मनुष्यों को इतना कायर, अझकमण्य और नपुसक बनाया किसने ? उत्तर साफ है- इन दान देने वालों ने । परिप्रहश पाप है--ऐसा पाप जिसका कोई प्रायश्चित्त नहीं । और दान उससे भी अधि भयानक पाप है । एक ओर वह परि- ग्रहण को प्रेरित करता है, दूसरी श्रोर बह संसार में अपाहिजपन को, गुलामो का, झकमंण्यता को बढ़ाता है । परिप्रदण समाज के लिए ऐसा बिष है. जिसका उपचार किया जा सकता है, लेकिन दान ऐसा विष है जिसका कोई उपचार ही नहीं । परिश्रहण निर्बल्न पर शारारिक उत्पीड़न हे, दान .निबेल की झआात्मिक सृत्यु है ।




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