भारतीय दर्शन का इतिहास भाग 1 | Bhartiya Darshan Ka Itihas Bhag - 1

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कलानाथ शास्त्री - Kalanath Shastri

कलानाथ शास्त्री (जन्म : 15 जुलाई 1936) संस्कृत के जाने माने विद्वान,भाषाविद्, एवं बहुप्रकाशित लेखक हैं। आप राष्ट्रपति द्वारा वैदुष्य के लिए अलंकृत, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, संस्कृत अकादमी आदि से पुरस्कृत, अनेक उपाधियों से सम्मानित व कई भाषाओँ में ग्रंथों के रचयिता हैं। वे विश्वविख्यात साहित्यकार तथा संस्कृत के युगांतरकारी कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के ज्येष्ठ पुत्र हैं।

परिचय
कलानाथ शास्त्री का जन्म 15 जुलाई 1936 को जयपुर, राजस्थान, भारत में हुआ। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में साहित्याचार्य तथा राजस्थान विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. की उपाधियाँ सर्वोच

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डॉ. एस. एन. दासगुप्त - Dr. S. N. Dasgupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ [ भारतीय दर्यान का इतिहास के बाद से स्पप्ट, निश्चितार्थ बोघक तथा श्रतिसंक्षिप्त श्रभिव्यक्तियों का प्रयोग करने की प्रवृत्ति बहुत ग्रधिक बढ़ती गई जिसके फलस्वरूप वड़ी मात्रा में दार्शनिक पारिभापिक सशाएं उद्भूत होती गई । इन संज्ञात्रों की श्रलग से कोई व्यार्या भी नहीं की गई, यह माना जाता रहा कि जो पाठक दद्यन ग्रस्थों को पढ़ता है वह इनका भ्रथे जानता ही होगा 1 प्राचीन काल में जिस किसी को भी इन ग्रस्थों का ग्रध्ययत प्रारम्भ करना होता, वह किसी गुरू की सहायता लेता जो उसे इन पारिभापिक संज्ञाद्रों का अर्थ समकाता । गुरू को यहे ज्ञान भ्रपने गुरू से मिला होता था श्रौर उसे फिर श्रपने गुरू से ।. दर्शन के जान को जन साधारण तक पहुँचाने की कोई प्रवृत्ति दुष्टिगोचर नहीं होती थी क्योंकि यह धारणा उन दिनों शाम थी कि दर्गन के श्रथ्ययन के अधिकारी कुछ चूने हुए लोग ही हो सकते हैं जो श्रन्य सभी तरह से श्रपने श्रापको इसके लिए योग्य सिद्ध कर किसी गुरू से यह शास्त्र सीखे |. जिनके पास ऐसी कुव्बत तथा उदार नैतिक दाक्ति होती थी कि दे भ्रपना समस्त जीवन दर्शन के सही श्रध्ययन मनन के लिए निछावर कर सकें तथा उसके तथ्यों को अपने जीवन में उतार सकें - वे ही इसके श्रध्ययन के पात्र समझे जाते थे । एक म्रन्य कठिनाई जो प्रारम्भिक ग्रध्येताग्रों को ग्राती है वह यह है कि कई वार एक ही पारिभाषिक छूंज्ञा विभिन्‍न दर्शन शाखाओं में नितान्त विभिन्‍त भ्रथों में प्रयुक्त की जाती है। इसलिए दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी के लिए यह ग्रावश्यक हैं कि वह प्रत्येक दर्षान में प्रत्येक दर्शन के प्रसंगानुसार पारिभापिक शब्दों के विशेष रूपों श्र भ्रर्थों से परिचित हो जिसके लिए उसे विसी दाव्दकोश से प्रकाश प्राप्त नहीं हो सकता । विभिन्न प्रयोगों के श्रनुसार इन दाव्दों के ग्र्थ दर्शनशास्त्र में जैसे-जैसे गति होती है, वोचगम्य होते जाते है।. विद्वान एवं पंडित पाठकों को भी दर्दानशास्त्र की जिस मीमांसा, वाद-विवाद एवं अन्य दर्शनों के दृष्टांतों एवं संकेतों को समकने में कठिनाई एवं मत्ति-श्रम हो जाता है। क्योंकि किसी भी व्यक्ति से यह ग्राम नहीं की जा सकती कि वह सभी दर्शनों के श्रत्य सिद्धान्तों का श्रध्ययन किए विना ही जानता हो, श्रतः: इन व्यास्यान्रों एवं मीमांसाश्रों के प्रद्नोत्तरों को समभते में भ्रत्यन्त कठिनाई प्रतीत होती है । संस्करण साहित्य में भारतीय दर्शन के मुख्य ग्रंगों का संक्षिप्त वर्णन दो महत्वपूर्ण ग्रस्थों मे पाया जाता है।. स्वदर्थन संग्रह तथा हरिमद्र द्वारा रचित पइुदशन समुच्च जिस पर सुगररन की टीका है, इनमें से प्रथम प्रन्थ साधारण कोटि का है शरीर किसी भी दर्शन की जीव विकास विज्ञान श्रयवा भौतिक ज्ञान मीर्मासा सम्बन्धी विचारघाराधों को समभने में विशेष सहायक सिद्ध नहीं होता ।. कॉवेल श्रौर गफ़ महोदय ने इस ग्रन्थ को श्रनूवाद किया है परन्तु सम्भवत: यह अनुवाद श्रासानी से समभ में नहीं झा सकती । गुणरतन द्वारा निसित टीका जैन तत्वों पर बड़े सुन्दर ढंग से प्रकाश डालती है शरीर कभी-पाभी ग्रन्थ दमन सम्तनदी एवं तस्कालीन पुस्तक सामग्री के सम्बन्ध में भी टिप्पणियों एवं सुनाया के लिए सहूरवंपूर्ण है परन्तु सिद्धान्तों एवं मतों की मीमांसा अ्रयवा व्याण्या से




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