शत्रुजयतीर्थोंद्धारप्रबंध | Shatrujayatirthoddharapravandh

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Shatrujayatirthoddharapravandh   by मुनि जिनविजय - Muni Jinvijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दात्रुंजय पंत का परिचय । थ् देख कर संघपति और संघ बडा खिन्न हुआ । जावड ने पहले सब जगह साफ करवाई । शत्ुंजयी नदी के जल से सवेत्र प्रक्षा- छन करवाया । मन्दिरों का स्मारक काम बनवा कर तन्नशिला से लाई हुई प्रतिमा की स्थापना की । उस कार्य में असुरों ने बहुत कुछ विश्न डाले परंतु श्रीवज्स्वाभी ने अपने देवी सामथ्य से उन सब का निवारण किया । प्रतिष्ठादिक कार्यों में जावढ ने अगणित धन खर्चे किया । मन्दिर के शिखरपर ध्वजारोपण करने के लिये जावड स्वयं अपनी ख्री सहित शिखर पर चढा । ध्वजारोपण किये बाद सर्व कार्यों की पूर्णाहहति हुईं समझ कर और अपने हाथों से इस महान्‌ तीर्थ का उद्धार हुआ देख कर दोनों (दम्पति) के हर्ष का पार नहीं रहा। वे आनन्दावेश में आकर वहीं पर नाचने छगे जिससे शिखर पर से नीचे गिर पढड़े। ममौतक आधात लगने के कारण, तत्काल शरीर त्याग कर उन का उन्नत आत्मा स्वर्ग की ओर प्रस्थित हो गया । जावड के पुत्र जाजनाग और संघ ने इस विपत्ति का बडा दुःख मनाया । परन्तु आचाये महाराज के उपदेश से सब शाम्तचित्त हुए । जावड ने इस तीथ की रक्षाके लिये और भी अनेक प्रबन्ध करने चाहे थे परंतु भवितव्यता के आंगे वे विफल गये । इस कारण आज भी जो काये पूर्णता को नहीं पहुंचता उस के विषय में ' यह तो जावड भावड कार्य है ! ' ऐसी लोकोक्ती इस देशमें ( गुजरात और काठियावाड में ) प्रचलित है । ”' जावड शाह के इस उद्धार की मीति विक्रम संवत्‌ १०८ दी गई है। इस उद्धार के बाद के एक और उद्धार का भी इस माहात्म्य में उ- छेख है। यह संवत्‌ ४७७ में हुआ था। इस का कर्ता बलभी का राजा शिलादित्य था। जावड़ शाह के उद्धार बाद सौराष्ट्र और लाट आदि देशो में बौद्धघम का विशेष जोर बढ़ने लगा । परवादियों के लिये दुर्जय ऐसे बौद्धाचार्यों ने इन देशों के राजओं को अपने मतानुयायी




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