लोकजीवन और साहित्य | Lokjivan Aur Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न्न्द० दूसरे शब्दों में जब से व्यक्तिगत संपत्ति का जन्म हुआ, समाज में वग बने, कुछ का कतंव्य मेहनत करना हुआ और कुछ का कतेव्य उनकी 'रक्षा' करना और उन्हें “ज्ञान' देना हुआ, तब से सुन्दरता पर इजारा हो गया उनका जो केवल्न रक्षा करते थे, केवल ज्ञान देते थे, पेट भरने और तन ढकने के साधन पदा करना जिनका काम न था । इसलिए जो लोग उपयोगी वस्तुएँ पेदा करते थे, उनका जीवन दुखमय हुआ; जो उपयोगी वस्तुओं के मालिक थे, उनका काम सु'दरता की उपासना करना हुआ । निष्क्रिय और अवकाश भोगी जीवों के सौंदय प्रेम को न्यायपू्ण ठद्दराने के लिए ऐसा शास्त्र ही बन गया जो सौन्दय को उप- योगी वस्तुओं से अलग करके देखता था । सौद्य की सत्ता वस्तुओं से हटाकर मनुष्य के मन या आत्मा में कर दी गई और वस्तुओं को उस शाश्वत सौन्द्य का प्रतीक भर माना गया । जैसे मनुष्यों से बार मनुष्यता की सत्ता नहीं दे वेसे दी सुन्दर वस्तुओं (या सु'दर भावों, विचारों) से बाहर सौदन्य की सत्ता नद्दीं है । और तमाम सुन्दर वस्तुएं , तमाम सुन्दर भाव-विचार मनुष्य के लिए हैं, उसकी सेवा करने के लिए, उसका हित साधने के लिए हैं । मनुष्य उन सुन्दर वस्तुआओं, सुन्दर भावों; विचारों के लिए, उनकी सेवा करने के लिए नहीं है । साहित्य भी मनुष्य के लिए है, साहित्य का सौन्द्य मनुष्य के उपयोग के लिए दे, मनुष्य साहित्य के लिए नहदीं है । लेकिन झवकाश-भोगी सज्ञन तमाम जनता का अस्तित्व इसीलिए साथक समभते हैं कि वह उनके लिए उपयोग की वस्तुए' उत्पन्न करती है । इसे वे सनातन इंश्वर-कृत नियम मानते हैं । इसी नियम के अनुसार वह साहित्य को जनता के लिए नहीं मानते, वरन्‌ जनता को साहित्य के लिए मानते हैं । लेकिन सौन्द्य है क्या ? बह मनुष्य को भावना मात्र है या उसकी कोई वस्तुगत सत्ता है ? कुछ सुन्दर वस्तुओं की मिसालें लीजिए । ताजमहल, तारों -भरी रात, भादों की जयुना, अवध के बाग, तुलसीकृत रामायण, देश-प्रेम,




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