समयसार प्रवचन भाग - १२ | Samaysaar Pravachan (bhag - 12)
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ गाथा २६२ दिनांक ३०-रे-दे ः ११ |]
न्िविघ बन्पच्छेद--हृष्टातके श्रनुसार यहाँ भी तो तीन प्रकारके बृघन हैं
जीवोंके । द्रव्यकर्मका बंघन है, भावकमंका बंघन है श्रीर शरीरका बन्घन है !
तो इनमे से छेदा कौन जाया, मेदा कौन जायगा श्रौर छोड़ा कौन जायगा ? तो
ट्रव्यकर्मको तो छेदनेकी उपमा है, क्योकि जेसे रस्सी छन-छनकर तोडनेसे धीरे-
घीरे सिथिल होकर कई जगहसे टूटती है इसी तरह बँघे हुए द्रव्यकर्मों मे, करण
परिणामोंके द्वारा युणश्रेणी निर्जराके रूपसे बहुत लम्वी स्थितिमे पड़े हुए कर्मोंमे
से कुछ वरगंणायें निकलकर नीचेकी स्थितिमे श्राती हैं । कुछ श्रनुभाग ऊपरसे
निकलकर नीचे श्राते । इस तरह धीरे-धीरे छिद-छिदकर द्रव्य क्मका बन्घन
समाप्त होता है । इसलिये द्रव्यकमंके बन्धनमे तो छेदनेकी उपमा होनी चाहिए,
भावकर्मके बन्घनमे मेदनेकी उपमा होनी चाहिए । भाववंध भेदा जाता है श्रोर
देहबन्घन छोडा जाता है ।
मविकर्मका थ नोकर्मका व धच्छेद--र्जेसे लोहेकी साँकल छेनी श्रौर हथौडेके
प्रह्ारसे दो टरूक कर दिये जाते हैं, इसी प्रकार भावकमं श्रर्थातु विकार भाव श्र
श्रात्माका सहज स्वभाव इसकी सीमामें प्रज्ञाकी छेनी भ्रौर प्रज्ञाके हथौडेका प्रहार
करके स्वरूपपरिचूय द्वारा उपयोगमे इन दोनोका मेदन कर दिया जाता है, भिन्न
कर दिया-जाता है, ये जुदे हैं यो जानकर उपयोग द्वारा भिन्न किया फिर सर्वथा
भी भिन्न हो,जाता है । शरीरका छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, किन्तु छोड़ना
होता है,। जैसे काठकी बेडीके श्रवयव निकाल देनेसें छुटकारा होता है । यहासे
बना बनाया शरीर छोड़कर श्रात्मा चला जाता है, श्रर्थात् द्रव्यक्म होता है छिन्न,
भावकमं-होता है भिन्न श्रोर शरीर: होता है मुक्त । तो इस तरह यह बबन छूट
निकले, टूटे, भिदे तो जीव मुक्त होता है ।
बंचके छेदन भेदन मोचनस मुक्ति --भंया मात्र बन्धका स्वरूप जानने
मात्रसे मुक्ति नहीं होती है। जान लिया कि प्रकृतिवंघ एक स्वभावको कहते हैं ।
कर्मोमे स्वभाव पड गया है । प्रकृति कहो या कुदरत कहो'। जैस लोग कहते हैं
कि प्राकृतिक हृश्य कितने भ्रच्छे हैं। वे प्राकृतिक हृश्य हैं क्या ? कर्मप्रकृतिके
उदयस जो एकन्द्रिय वनस्पति, पत्थरकी रचना होती हैं, उसी रचनाकों'प्राकृर
तिक हृथ्य कहते हैं । प्रकेतिसे बना हुआ यह संब निर्माण हैं । जैसे जगलमे पहाड़
होते है, करना करताप्है, चित्र विचित्र पेड होते हैं, चित्र विचित्र फल फुल होते
है, वे सुहावने लंगते हैं, प्ूडावो लो लोग कहते हैं.कि,.ये प्राकृतिक , हश्य हैं । बनाये
गये नहीं हैं । ऐसी यहूँ प्रा स्वभाव श्रोर बनाया '' बीचकी
चीज है, वह सारी वनस्पतियोका, जल शभ्रौर ५. ८ » ष््या
गया भी नहीं है श्रौर. पदार्थोके स्वभावसे भी
भर्थात् कर्म प्रकृतिके उदयसे उत्पन्त हुए 'ैं ।
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