बृहदारन्यक उपनिषद | Brihadaranyak Upnishad

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Brihadaranyak Upnishad by पं राजाराम प्रोफ़ेसर - Pt. Rajaram Profesar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ चददारण्यक-उपनिषद आगे बढ़ने वाला हो कर वह घोड़ा देवताओं को गया बाजी हो कर गन्धर्वों को दौड़ने वाला हो कर असुरों को और अश्व सामान्य घोड़ा हो कर मचुष्यों को । समुद्र ही+# इसका बन्घु है और समुद्र ही इसका उत्पत्ति स्थान है ॥ दूसरा ब्राह्मण 1 अधि ब्राह्मण नेवेद किंचनाग्र आसीन्सत्युनैवेदमाइतमासीत्‌अ- नायया । अशनाया हि सृत्युः । तन्मनो5कुरुता त्मन्वी स्या- मिति । सोध्चन्नचरत्‌ तस्याचेत आपोब्जायन्तातेपेमे कमभूदिति तदेवाकस्याकंत्वं । क हवा अस्त भवति य ऋ हु रू त्चं च्द एचमतदुकस्वाकत्व बढ ॥ ३ ॥. पहले यहां कुछ नहीं था जो अब यहां दोखता है । सत्यु से ही यह ६ दृश्य ढका हुआ था-भूख से हु क्योंकि भूख सत्य है । के समुद्रनदधावस्था में प्रकति जिस से आगे घविराटू उत्पन्न हुआ समुद्र--परमात्मा अथवा घसिद्ध जो समुद्र है शंकराचाय | 1 इस ब्राह्मण का नाम अभ्नि ब्राह्मण है । इस में अश्च- मेघ के अधि का तत्व उपदेश किया है यह साध्यन्दिन शतपथ १० 1 ६1५ मेंहे।॥ न १ जिस तरह सड्टी के बतन मट्दी से निकल कर अछग रह कर फिर मडट्टी में मिल जाते हैं । और मट्दी ही बन जाते हैं । इसी तरह यह जगत प्रकृति से निकल कर फिर प्रकृति में मिल जाता है. और प्रछृति ही बन जाता है । उस प्रकृति के




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