दासबोध | Dasabodh

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Dasabodh  by पं. माधवराव सप्रे - Pt. Madhavrao Sapre

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ररता[वना व थ श्रीराम से मंत्रोपदेश ओर आज्ञा पाकर वाल समर्थ को परम सन्तोप हुआ । उनकी माता और वन्घु को जव यह हाल मालम हुआ तब वे अदन्त हृर्षित हुए । विवाद-प्रसंग । जिस प्रकार माता अपने पुत्त के लिए अनेक उत्साह की इच्छायें रखती है उसी प्रकार वह एक यह भी प्रवल इच्छा रखती ह कि लड़के का विवाह शीघ्र होजाना चाहए | इसी नियम के अनुसार समर्थ की माता राणुवाई भी अपने पुत्र नारायण ( वाल समथ ) के विवाद की चिन्ता करने लगीं । विवाह की वातें सुन कर नारायणजी बहुत चिढ़ते आर नाना प्रकार से विरक्ति व्यक्त करते थे । एक थार विवाह की चचां छिड़ने पर वे घर से भाग कर जंगल में चले गये । उनके ज्येष्ठ बन्घु श्रेष्ठ वहुत समझा घुझाकर उन्हें घर ले आये । उनकी यह चाल देख कर माता राणुवाई को वड़ी चिन्ता हुई । श्रेष्ठ अपने कनिष्ठ वन्धु नारायण की विरक्ति देख कर पहले ही समझ गये थे कि यह विवाह नहां करना चाहता । उन्होंन अपनी माता को बहुत प्रकार से समझाया; पर वे वार वार यह कहतां हक नारायण का विवाह अवइ्य होना चाहिए । अवसर पाकर एक दिन माता राणुवाइ अपने नारायण को एकान्त स्थान में ले गई और मुख पर हाथ फेर कर, वड़े लाइ-प्यार से वोलीं, “ वेटा '” तू मेरा कहना मानता है या नहीं ? ” वालक समर्थ ने उत्तर दिया, ** मातुभी, इसके लिए क्या पूछना है? आपका कहना न मानेंगे तो मानेंग किसका १ कहा भी है, * न माठुः पर देवतम, ” यह सुन कर माता राणुवाई वोलों, “ अच्छा तो विवाह को वात चलने पर तू. ऐसा पागरूपन क्यों करता हे तुझे मेरी शपथ हे; “ अन्तरपट ” पकड़ने तक तू. विवाह के लिए इन्क,र न करना । ” माता को यह वात सुन कर समथ व विचार में पड़े । कुछ देर तक सोच विचार कर उन्होंने उत्तर दिया, “* अच्छा, अन्तरपट पकड़न तक म इन्कार न करूँ गा । ” शोली भाली विचारी साता ! समर्थ के दाँव-पेंच उसे केसे मातम होते ! राणु- वाई ने समझ लिया कि लड़का विवाह करने के लिए तेयार होगया । उन्होंने जब यह वात अपने बड़े पुत्र श्रेष्ठ से बतलाई तब वे कुछ हँसे ओर प्रकट में सिफू इतना ही कहा; ““्क्योंनहों!”' ' जब देखा गया कि लड़का विवाह करने के लिए राजी है तव सबकी सम्मति से एक कुठीन और प्राचीन सम्बन्धी कुल की कन्या से विवाह निश्चित किया गया । लमतिथि के दिन श्रेष्ठ सारी वरात लेकर, वड़ी धूम घास के साथ कन्या के पिता के यहाँ पहुंचे । सबके साथ समर्थ भी आनन्दपूरवक गये । सीमन्तपूजन, पुण्याहवाचन आदि ल्नविधि होते समय श्रेष्ठ और समर्थ, दोनों भाई, आपस में एक दूसरे की ओर देख कर, मन्द मन्द हँसते जाते थे | कुछ समय के वाद अन्तरपट पकड़ने का अवसर आया । ब्राह्मणों ने मगलाप्रक पढ़ना प्रारम्भ किया । सब ब्राह्मण एक साथ ही ” सावधान ” बोले । समथ ने सोचा कि में सदा सदा सावधान रहता हूँ; फिर थे लोग ” सावधान, सावधान ” कहते ही हैं; इस- बन




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