धर्मा मृत | Dharma Mrit

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Dharma Mrit  by देशभूषण जी महाराज - Deshbhushan ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है # हो सकता । सच्चे देव में पहला गुण सर्वेज्ृत्य + का होना आवदयक है अर्थात्‌ जो संसार के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जान सके, क्योंकि ज्ञान का स्वमाव पदार्थों को जानना है; जब तक इस ज्ञान पर पर्दा पड़ा रहता है; तब तक उसके जानने रुप स्वभाव का तिरो- साव या उसमें हीनाधिकता होती है । जब ज्ञान को आवृत करने-ठकने वाले ज्ञानावरण कमें का अमाव हो जाता है तो आत्मा का पुणे ज्ञान गुण प्रकट हो जाता है; जिससे सच्चा देव संसार के समस्त पदार्थों को जान य देख सकता है । >वीतरागता--क्षुधा, तृषा, मय, राग, ढेष, मोह, चिन्ता, बुढ़ापा, रोग, मरण, पसीना, खेद, अभिमान, रति आइचयें, जन्म, नींद और शोक इन अठारह दोषों से रहित होना वीतरागता है । संसारी प्राणी अनादि काल से क्रोधादि कघाय, अज्ञान एवं विषय- बासनाओं के वशीसूत हैं; जिससे वे जन्म, मरण, बरुढ़ापा आदि के दुःखों को मोग रहे हैं । साधारणतः उपयु क्त अठारह दोष प्रत्येक संसारी प्राणी में वतंमान हैं, जो इन दोनों के बशीसूत है, वह सच्चा देव नहीं हो सकता । + सूक्ष्मान्तरितदूरार्धा: प्रत्यक्षा: कस्यचिद्‌ यथा । अनुमेयत्वतो5ग्न्यादिरिति सबंज्ञसंस्थिति: ॥ ४५11 नाप्तमीमांसा-- सुध्ष्मा: स्वभावविप्रकुष्टा: । अन्तरिता: कालविप्रकुष्टा: । दूरा: देखविप्रकृष्टा: । ते च ते अर्थाण्च सूक्ष्मान्त- रितदूरार्था: । तथा च स्वभावविप्रकृष्टा मन्त्रीपधिदक्तिचित्तादय: । कालविप्रकृष्टा. लाभालाभसुखदुः- खग्रहुण रागादय:। देशविप्रकृष्टा मुष्टिस्थादिद्रव्यम्‌ । दूरा हिमवनुमन्दर मकराकरादय. । प्रत्यक्षा अध्यक्षा: प्रत्यक्षज्ञानगोच रा: कस्यचित्‌ । --आप्तमीमांसावृत्ति अर्थ --किसी पुरुष विशेष को सूक्ष्म ( स्वभाव से ही महृश्य मन्त्र, श्रीषधि-शक्ति , चित्त श्रादि) अन्तरित (कालविप्रकृष्ट लाभ, अलाभ, सुख, दु ख और राग राम-रावणादि)श्लौर दूर-वर्ती (देशविप्रकृष्ट हिमालय, मन्दर और समुद्रादि) अर्थों (पदार्थों) का प्रत्यक्ष होता है जिस प्रकार सर्वे साघारण को अनुमानसे अग्नि गादि का ज्ञान तथा प्रत्यक्ष होता है । ग्रणु श्रादि सुक्ष्मान्तरितदूराथं भी निक्चित प्रमाण से प्रत्यक्ष इव भासमान होते हैं, उसी प्रकार किसी पुरुपविक्षेप को उक्त पदार्थ भी प्रत्यक्ष होते हैं । इस प्रकार से सवज्ञ- विस्ववेत्ता की स्थिति है ।स्वज्ञ ही दूरान्तरितविप्रकृष्ट को जानते हैं । 2 क्षुतपिपासाज रातंकजन्मान्तकभयस्मया: । न रागद्द षरमोहाश्च यस्याप्त: सः प्रकी त्य॑ंते ।। -एरत्नकरण्डश्रावकाचार, इलोक ६. झच--क्ुधा, पिपासा, जरा, भय, जन्म मरण समय और राग-ट ष तथा मोह जिसे नहीं होते अर्थात्‌ जो इन से रहित है, वही प्राप्त कहा जाता है । ऐसी शास्त्रागम की मान्यता है।




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