धर्मा मृत | Dharma Mrit

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34 MB
कुल पष्ठ :
869
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about देशभूषण जी महाराज - Deshbhushan ji Maharaj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है #
हो सकता । सच्चे देव में पहला गुण सर्वेज्ृत्य + का होना आवदयक है अर्थात् जो संसार के
समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जान सके, क्योंकि ज्ञान का स्वमाव पदार्थों को जानना है;
जब तक इस ज्ञान पर पर्दा पड़ा रहता है; तब तक उसके जानने रुप स्वभाव का तिरो-
साव या उसमें हीनाधिकता होती है । जब ज्ञान को आवृत करने-ठकने वाले ज्ञानावरण कमें
का अमाव हो जाता है तो आत्मा का पुणे ज्ञान गुण प्रकट हो जाता है; जिससे सच्चा देव
संसार के समस्त पदार्थों को जान य देख सकता है ।
>वीतरागता--क्षुधा, तृषा, मय, राग, ढेष, मोह, चिन्ता, बुढ़ापा, रोग, मरण,
पसीना, खेद, अभिमान, रति आइचयें, जन्म, नींद और शोक इन अठारह दोषों से रहित
होना वीतरागता है । संसारी प्राणी अनादि काल से क्रोधादि कघाय, अज्ञान एवं विषय-
बासनाओं के वशीसूत हैं; जिससे वे जन्म, मरण, बरुढ़ापा आदि के दुःखों को मोग रहे हैं ।
साधारणतः उपयु क्त अठारह दोष प्रत्येक संसारी प्राणी में वतंमान हैं, जो इन दोनों के
बशीसूत है, वह सच्चा देव नहीं हो सकता ।
+ सूक्ष्मान्तरितदूरार्धा: प्रत्यक्षा: कस्यचिद् यथा ।
अनुमेयत्वतो5ग्न्यादिरिति सबंज्ञसंस्थिति: ॥ ४५11 नाप्तमीमांसा--
सुध्ष्मा: स्वभावविप्रकुष्टा: । अन्तरिता: कालविप्रकुष्टा: । दूरा: देखविप्रकृष्टा: । ते च ते अर्थाण्च सूक्ष्मान्त-
रितदूरार्था: । तथा च स्वभावविप्रकृष्टा मन्त्रीपधिदक्तिचित्तादय: । कालविप्रकृष्टा. लाभालाभसुखदुः-
खग्रहुण रागादय:। देशविप्रकृष्टा मुष्टिस्थादिद्रव्यम् । दूरा हिमवनुमन्दर मकराकरादय. । प्रत्यक्षा
अध्यक्षा: प्रत्यक्षज्ञानगोच रा: कस्यचित् ।
--आप्तमीमांसावृत्ति
अर्थ --किसी पुरुष विशेष को सूक्ष्म ( स्वभाव से ही महृश्य मन्त्र, श्रीषधि-शक्ति , चित्त श्रादि) अन्तरित
(कालविप्रकृष्ट लाभ, अलाभ, सुख, दु ख और राग राम-रावणादि)श्लौर दूर-वर्ती (देशविप्रकृष्ट हिमालय,
मन्दर और समुद्रादि) अर्थों (पदार्थों) का प्रत्यक्ष होता है जिस प्रकार सर्वे साघारण को अनुमानसे अग्नि
गादि का ज्ञान तथा प्रत्यक्ष होता है । ग्रणु श्रादि सुक्ष्मान्तरितदूराथं भी निक्चित प्रमाण से प्रत्यक्ष इव
भासमान होते हैं, उसी प्रकार किसी पुरुपविक्षेप को उक्त पदार्थ भी प्रत्यक्ष होते हैं । इस प्रकार से सवज्ञ-
विस्ववेत्ता की स्थिति है ।स्वज्ञ ही दूरान्तरितविप्रकृष्ट को जानते हैं ।
2 क्षुतपिपासाज रातंकजन्मान्तकभयस्मया: ।
न रागद्द षरमोहाश्च यस्याप्त: सः प्रकी त्य॑ंते ।।
-एरत्नकरण्डश्रावकाचार, इलोक ६.
झच--क्ुधा, पिपासा, जरा, भय, जन्म मरण समय और राग-ट ष तथा मोह जिसे नहीं होते अर्थात् जो
इन से रहित है, वही प्राप्त कहा जाता है । ऐसी शास्त्रागम की मान्यता है।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...