जीवन स्मृति | Jivan Smriti

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Jivan Smriti  by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड्८ रयौन्द्र-साहित्म : भाग १८ है गहाँ ?' बह उम्र बनी नहीं पूछा कि राजा कोन हूँ ; और प्रमके सास्यक सम्चन्धमं भी आग तफ़ में कोई सानययरी टासिल नहीं फर सरय ; सिर्फ इतना ही मादूम हो सका कि हमारे मकानमें हो उस सजाका घर है 1 अपने वचपनकी ओर जब मुड़कर देखता हूं तो जगतू आर जीवन रहस्वयें परिपूर्ण माठूम होता हू । 'सर्वश्र ही कुछ-न-कुछ मदृभुन शौर अधिननीय हूँ. शोर फवें वह दिखाई दे याय उसका कोई ठीफ नहीं - यट बाल प्रतिदिन हो सनमें जागा करती थी। प्रति मानों सुदुठों बन्द करके हसती-हुई प्रा करती थी, *दुसमे बया हूं बताना भला ?' बया होना असम्भव है मो निश्चितसूपसे नहीं बता सपता था। सूच याद हूँ, दक्षिणक वर के एक कोने में सीताफउके यो गाइकर रोज उसमे पाती दिया करता था । उस बीजसे पंड भी हो सता हूँ, यह सोचकर मनमें बड़ा जाइचयं और उत्सुकता पं दा होती यं । सीनताफठके बोजसे अब भी अकुर निकलते है, निनतु उसके साथ - साय सनके अन्दर अब विस्मय अदुरित नहीं होता यह घरीफेके घीजफा दोप नहीं, मनका ही दोप हैं।. गुणेन - भाई साहयके* वर्गीचके फ्री - सील ( बनावटी पहाड़ ) से पत्थर चुरा « चुराकर हमलोगंने अपने पढ़नेके कमरेके एक कोने में नकली पहाड़ बनाना शुरू करें दिया था। उसपर इधर - उबर फुलाके पौधे लगा - मारकर, उतकी सेवाके बहाने, उनके प्रति हमलाग इतना अत्याचार किया करते श्रे कि बेचारें पेड़ होनेसे ही सव चुपचाप सह छेते रे और मरनेमें देर न करते थे। उस पहाइमे हमें कितना लानन्द और भाईचर्य होता था. उसे कहकर सतम नहीं किया जा सकता । हमारे सनमें शसा विव्वास था कि हमारी यह सृप्टि युरुजनोंकि लिए भी जरूर आदचर्थकी वस्तु होगी । विन्तु जिस दिन अपने उस विश्वासकी परीक्षाका मोका हाथ आया उसी दिन देखा गया कि हमारे कमरेंका वह पहाड़ अपने परेड - पौधों समेत नः्जानें कहाँ अन्तर्धान हो गया। पढ़नेंका कमरा पर्वत - सृप्टिका उपयुक्त क्षेत्र नहीं, इस बातकी शिक्षा इस तरह अकस्मात्‌ और एबी रूइनाके साय मिलने से हमलो गोको १ कविके घचेरे भाई। देवेन्दनायकें आता गिरीन्दनायकें कनिष्ठ पुत्र गुणेन्दनाय ठाकुर ।




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