जैन शोध और समीक्षा | Jain Shodh Aur Samiksha

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Jain Shodh Aur Samiksha  by प्रेमसागर जैन - Prem Sagar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क् सोरठा, चौपाई, बुजंगप्रयात भादि छन्दों का सफल प्रयोग है । ऐसा प्रतीत हॉता है कि कवि भाव श्ौर भाषा दोनों का सफल चितेरा था । केवल नेंमि-राजुल पर ही नहीं, श्रपितु श्रन्य कथाओं का भ्राक्षय लेकर भी अनेक खण्ड काव्यों का निर्माण हुआ । १७वीं शताब्दी के कवि पं० भगवंतीदास की 'लघुसीतासतु” एक भ्रच्छी रचना है । इसमें सीता श्रोर मग्दोदरी के संवांदों के माध्यम से रावण श्रौर मन्दोदरी के मानसिक श्रन्तद्न्द्र का चित्रण है । भाषा श्रौर भाव दोनों ही उत्तम कोटि के हैं । ब्रह्मा रायमल्ल का 'हमुमच्चरित्र' भी इस दिशा की एक मंहत्त्वपुणों कड़ी है । इसमें वीररस-परक जीवन का चिंत्रण है । उनके पिता पवनझ्जय भौर माता श्रब्जना जेन धर्मानुयायी थे । हनुमान गर्भ में ही थे कि सास ने एक भ्रम-पूर्णं सन्देह के कारण श्रन्जना को घर से निकाल दिया । एक कठोर शभ्रौर तिरस्कृत जीवन बिताया भ्रड्जना ने । करुणा जैसे साक्षात्‌ हो उठी । सती, पति-निष्ठा, गर्भभारालसा वह एक श्रनन्य भक्ति के साथ दिन बिताती रही । कवि ने उसके विरह का मार्मिक चित्र खींचा है । इसी बीच हनुमान का जन्म श्रौर लालन-पालन हुमा फिर, पति-पत्नी का मिलन । संयोगावस्था, किन्तु झब यौवन की बाढ़ चुक गई थी । थह शरद ऋतु थी, तो हतूमान ने राम की जै-जे के गीत गाये । ऐसा सरस खण्ड काव्य मध्यकालीन हिन्दी में दूंढे भी नहीं मिलेगा । महानन्द के “श्रज्जनासुन्दरीरास' में भी श्रब्जना के विरह का सजीव चित्रण हुमा है । कथा के बीच से उभरा यह विरह हार में इन्द्रमणि-सा प्रतिभासित होता है । हेमरत्नसुरि की 'पदिमनी चौपई' सौन्दये श्र प्रेम के रंगों से बनी थी । कवि सौन्दर्य के नाना चित्रों को प्रेम की तूलिका से खीचता गया है। पढ़ कर पाठक विभोर हुए बिना नहीं रहता । उसमें मादकता है, किन्तु सात्विकता भी कम नहीं, उसमें जलाने की ताकत है, किन्तु शीतलता भी शभ्रल्प नहीं, उसमें विरह है, किन्तु संयोग के क्षण भी भुलाये नहीं जा सकते । पदिमनी का वह रूप, वह विरह, वह संयोग भुलाये नहीं भूलता, हटाये नहीं हटता, जैसे सदा-सदा के लिए खिंच के रह गया हो । हिन्दी का मध्यकाल रूपकों का युग था । कोई ऐसा भक्त कवि नहीं, जिसने झ्पने भावों को श्रभिव्यक्त करने के लिए रूपकों का सहारा न लिया हो । क्या सुरदास, क्या तुलसी दास श्रौर क्या कबीर दास । जैन कवियों ने भी उसी माध्यम को भ्पनाया । उनमें एक विशेषता थी कि उनकी अनेक कृतियाँ समूचे




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