जन - जन के बीच आचार्य श्री तुलसी भाग - 2 | Jan-jan Ke Bich Acharya Sri Tulasi Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ही- चाहता कि इस सुलभता पर कुछ रोक लगाऊं । जिसके स्वास्थ्य पर प्रति- कूल प्रभाव नही पडे वह यथेष्ट ईशु-रस ले सकता है और पी सकता है । हमारी परम्परा के अ्रतुसार भ्राचायं की श्राज्ञा के विना कोई भी साधु कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं कर सकता । बिना श्राचा्यं को दिखाए उसका उपयोग भी नहीं कर सकता । पर इस समय मैं सबको छूट देता हूँ । मार्ग मे चलते यदि शुद्ध ईशु-रस मिले तो कोई भी उसे ग्रहण कर सकता है। हाँ, जो ईक्ु-रस ग्रहण करे वह श्राकर मु ज्ञात भ्रवश्य कर दे । मैं देखता हूँ कुछ साधु इस विधि मे झसावधानी करते है। वह सघ की दृप्टि से उपयुवत नही है । श्राजञा चाहें छोटी हो या बडी हमे उसका निप्ठा से पालन करना चाहिए । मैं आज सबको सावधान कर देता हूँ । यदि इसमें किसी ने प्रमाद किया तो ये प्राप्त सुविघाएँ श्रधघिक दिनो तक नहीं चल सकेगी । इसके साथ-साथ एक वात श्रौर भी है, जिस स्थान से एक बार रस ले लिया है वहाँ फिर दूसरी बार कोई साधु न जाए। सब साधु एक साथ तो चलते नही है । भ्रत. पीछे झाने वाले साधुझो को यह पुछ कर 'रस लेना चाहिए कि यहाँ से पहले कोई रस ले तो नहीं गए *? वार- वार एक ही स्थान पर जाने से दाता के मन मे साधु्रो के प्रति श्रश्नद्धा उत्पन्न हो सकती है। हम किसी पर भार वनना नही चाहते । कोई खुद्दी से हमे कुछ दे, वही हमे लेना चाहिए । यद्यपि आचायेंश्री श्र भी कुछ कहना चाहते थे पर उस समय प्रति- क्रमण मे विलम्ब हो रहा था । श्रत श्राचायंश्री ने उन विषयों को किसी दूसरे दिन के लिए छोड दिया । चदोली से विहार कर हम मुगलसराय की शोर श्रा रहे थे । मार्ग में राजस्थानी लोगो का एक काफिला मिला । उसमे बूढ़े, वच्चे, स्त्री-पुरुष सभी लोग थे । वे घोडो, गधो तथा उंटो पर श्रपना घर हार लादे डाल




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