उस्तादाना कमाल | Ustadana Kamal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ये इसका हैं १७ से पूर्व इस्लाहोंका संकलन किसी शाइर या अदीबने नही किया था । इस तरफ हज़रत “सफ़दर' सिर्जापुरीका ध्यान आकर्षित हुआ । मीर, दर, मुसहफ़ी, आतिश, नासिख, ग़ालिब, मोगिन, जौक, दाग, असीर, तस्लीम, तस्नीम, अमीर मीनाई-जैसे रौशन दमाग उस्ताद भावी पीढ़ीको' डगर दिखाकर अन्तर्ध्यान हो चुके थे । जिन शाइरोने उनकी आँखे देखी थी । जुतियोमें बैठकर कुछ सीखा था और अपनी शाइरीका चिराग उनकी ज्योतिसे रोशन किया था. और स्वयं उस्तादीके मत्तबेको पहुँच गये थे । वे भी प्रात:कालीन दीप बने टिमटिसा रहे थे । कब कौन-सा चिराग अपनी लौ खो बैठे; यही अन्देशा 'सफ़दर' मिर्जापुरीको सताने लगा । उस्ताद शाइरोंका कलाम तो उनके दीवानोंमें सुगमतापुवंक सिल जायगा, किन्तु उन-द्वारा ली-दी गयी इस्लाहें फिर कहाँ और क्योकर नसीब होंगी ? शाइरका वास्तविक जौहर तो इस्लाहों ही से प्रकट होता है। अत: तनिक-सी चुकसे उद्दू-अदबका खज़ाना एक अमूल्य निधिसे रिक्त रह जायगा । अब पढताये कहा होत है जब चिड़िया चुग गयीं खेत । अतः सफदर मिर्जापुरी इस्लाहूें संकलन करनेके लिए दीवानावार लखनऊके गली-कूचोमे उस्तादोके दरोंकी खाक छानने लगे । शुरू-शुरू- मे कुछने यह कहकर उन्हें टरकाया--“हमारे कलामपर उस्तादने इस्लाह देनेकी जरूरत ही महसूस नहीं की और हमने अपने शागिर्दोको दी गयी इस्लाहोंकी नकल नहीं रक्खी ।” कुछने यह कहकर चलता किया-- “हुमें जो इस्लाहें दी गयी थी, उन्हे हमने अपनी ब्याज (कविता सक- लन) में नोट करनेके बाद जाया कर दिया । यह माछूम होता कि कोई अदीब इस्लाहोंको भी शाया ( प्रकाशित ) करेगा तो. सहेजकर रख लेते ।”” लेकिन. 'सफदर' निराश न हुए । वे अपनी धुन के पक्के थे । तीन वर्ष




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