निरंजनी संप्रदाय और सन्त तुरसीदास निरंजनी | Niranjani Sampraday Aur Sant Turasidas Niranjani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. भागीरथ मिश्र - Dr. Bhagirathi Mishra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सत तुरसीदास निरजनी दे
रूपमे उदार सत, मुसलमानों और सुफियोंकि सपर्कके परिणामस्वरूप प्राप्त होते हैं।
सूफियोमे वे मुसलमान हैं जिनके हृदयमें भारतीय जीवनके प्रति उदार भावना
विद्यमान थी ।
वौद्ध धर्म भी इसी प्रकारके एक मनोवैज्ञानिक तथा आन्तरिक जीवन-सघषका
परिणाम था । वर्णाश्रम व्यवस्था वननेके पश्चात् भक्तिमे सकीर्णता मा गयी थी और
कुछ उदार दृष्टिवाले शास्त्रीय पद्धतिके विरुद्ध मचल रहे थे। वैदिक कालके कमेंकाण्ड,
यज्ञ तथा नियम समाजकों जकड रहे थे । सहिता, ब्राह्मण, उपनिषदो तथा स्मृततियो-
के आधारपर मनुष्य पूजापाठ, यज्ञ, जप, बलि तथा वर्णाश्रिम घर्मों तथा नियमोके
प्रतिपालनमे कट्टर एवं कठोर हो गये थे । पूजा-पाठ, यज्ञ-जपमे भी प्रतिस्पर्धाकी
भावना आ जानेसे जीवन वर्धनमय-सा होने लगा था और मस्तिष्क रूढियोकी गुलामी
कबूल कर चुका था । ऐसी दशामे मनुष्यताके उदार व्यवहार तथा सपूर्ण प्राणियोंकि
प्रति दया और प्रेमकी भावना विकास नहीं पाती । हम भअपनेको पुण्यशाली बनानेके
लिए यज्ञोभे प्राणियोकी आहुति देते हैं, तो हृदय आतरिक रूपसे विद्रोह करता है ।
इसमें हम पुण्य न करके पाप कमाते है । ऐसे देवी-देवता भी, जो हमारे प्राणियोकी
हत्या करनेसे सतुष्ट होते हैं, हमारी श्रद्धाके पात्र नहीं रह सकते । इन सब
कारणोसे ही वौद्धघ्म त्कालीन वैदिक कर्सकाडी धर्मकी प्रतिक्रिया-स्त्ररूप उठ
खड़ा हुआ और उसने किसी भी देवतापर अपनी श्रद्धा न रखी । व्यापक मानवता ही
वौद्ध घ्मेका उपदेश व सदेद है ।
इस प्रकारके ७८1[र वर्मका प्रभाव जो सब प्राणियोपर दया करनेका उपदेश
देता था, वर्णाश्रम धर्मके द्वारा ठुकराये और समाजके पीड़ित वर्ग तथा विदेशियोपर
विशेष रूपसे पढ़ा, फकितु रू रूपसे उपस्थित न्ञाह्ाण घर्मको भेद न सका । यहीं
वौद्ध घर्मकी धाराके विदेशोन्मुख होनेका एक कारण है । वौद्ध घर्मे राजघर्म हो
जानिपर भी भारतीय समाजके मतरमे घुसकर सहानुभूति और स्वागत न पा सका
और भिक्षुओं तक ही केद्रित रहा । समाजमे प्रभाव डालनेके लक्ष्यको लेकर यह
ताघरिक क्रियाओके रूपमे आया । कितु यह विकसित होकर महायानकी शाखाके
परिवर्तित रूप कई एकातिक पथोंके रूपमे ही चला गया गौर घीरे-धीरे ब्नाह्मण
घर्मके द्वारा पुन विरोध होनेपर उसकी कायापलट हो गयी । *
सिद्धो और नाथ-पथियोकी उपासनाकी क्रियाएँ भी इसीके परिणामस्वरूप
है । बैप्णव मौर जात व्मेसे जिस भक्तिका विकास हुआ वह सगुण भक्ति है
और इस प्रकारके साघवोंने जिस धर्मको अपनाया वह निर्मुण भक्ति ही थी जिसका
[१ हिंदी साहित्यकी भूमिका और मध्ययुगेर साघनाके आाधारपर |]
User Reviews
No Reviews | Add Yours...