अक्षत | Akshat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाद में मस्त रहा करते थे। धादी के नौ साल बाद उनकी पटनी परलोक सिंधार गयीं । तब से हारमोनियम और ढोलक के सहारे वे जिन्दगी काट रहे थे । घर के झंझटों से वे कौसो दूर रहा करते थे । भाई के मुद्द अचानक यह चिन्ताजनक समाचार सुनने को वे प्रस्तुत नहीं थे । भभी तो वे ऐसी मनजानी-वेपहुच!नी दुनिया में जा पहुंचे थे, जहा दु.ख नही, चिन्ता नही, अलगाव-बिलगाव को बात नही । वहीं तो स्वप्नवत्‌ मनोंहारी सौन्दर्य का विस्तीर्ण साम्राज्य था । कल्पना ही कल्पना थी, ऐसा आकर्षण था कि खिचते चले जाने की तमन्ना थी । विधाता का विधान भी विधिन्न होता है। कहां तो वे ललिता से मिलने को स्परदनपुर्ण वरुपना में तरह-तरह के कथनोपकथन सदने में लगे हुए थे, और कहां उन्हे घर जाने के लिए, घोती-कुर्ता जैसे आवश्यक सामान सहेजने में जुद जाना पड़ा । कर्तव्य और प्रेम के बीच अनिवायं संघर्ष की आशका ने ही मर्यादा जैसी कठोर मूल्यगत वस्तु का निर्माण किया है। कभी यह मर्यादा मनुष्य की कुम्ठा बन जाती है, तो कभी उसमें देवत्वं उत्पन्न कर देती है। दो-चार कपड़े लेकर राजदेव झटपट तैयार हो गये । रिक्शा भा चुका था 1 अनीव उदास-उदास नजरों से सड़क के उस पार वाले मकान को देखते हुए राशदेव रिक्शा पर जा बेठे। मन ही मन वे ललिता के पास जा पहुंचते । सड़क पर भाने-जाने वालों को राजदेव देख नही पा रहे थे । उन्हें इतना समय भी नहीं मिल पाया कि अपनी परवशतता की सूचना मुकेश को दे सकें । 'शाजदेव का मन खंडित सूत्तों को पकड़कर जोड़ने में लगा हुआ था। ललिता 'शोग-शय्या पर लैटी होगी । उसके भाई मुकेश लौट रहे होगे या लौटने वाले होंगे । निश्चय ही पान की दूकान पर हुई भेंट का जिक्र करते हुए मुकेश ललिता को सूचित करेंगे कि राजदेव मिलने आयेंगे । राजदेव मिलने जा नही सकेंगे । 'राजदेव तो अपने गांव जा रहे है । मालूम नहीं बहा उनके प्रारब्ध में वया लिखा है। न जाने वह कब तक गाव से लौटेंगे । तब तक ललिता की धारणा बन चुकी होगों कि राजदेव भरोसा करने योग्य व्यक्ति नही है 1 श्9




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