मणिभद्र श्री जैन श्वेताम्बर तपागच्छ संघ जयपुर का वार्षिक मुख - पत्र | Manibhadra Shri Jain Swetambar Tapagachchh Sangh Jayapur Ka Varshik Mukh - Patra
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
184
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(जीव) को प्रमु प्रतिमा का दर्शन सूयें की एक
हत्की सी किरण रूप हैं । यदि वह इस किरण का
भी श्रालम्बन ले ले तो फिर धीरे-धीरे पूर्ण सुये के
प्रकाश को पाकर क्रमश: आठों कमें का क्षय करके
सिद्ध स्वरूप को पा सकता है ।
जब तक प्रमु प्रतिमा की पूज्यता श्रौर उप-
कारिता के प्रति हमारे हृदय में श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न
नहीं होगी, तब तक हम श्रज्ञान रूपी अंधेरे में
भटकते रहेंगे । ज्ञान, ध्यान, तप, त्याग, विदुवत्ता,
चक््तृत्व, लोकप्रियता, सौभाग्य श्रादि गुणों के साथ
यदि हम में देव-गुरु के प्रति भक्ति न हो तो हृदय
भ्रहंकार से भर जाता है । जहाँ भ्रहंकार होता है,
चहाँ भघ:पतन निश्चित होता है । केवल भक्ति
का मार्ग ही ऐसा है जो हृदय में विनय का, नग्रता
का, मृदुता का, ऋणजुता का, व समर्पणता का भाव
उत्पन्न करता है । जब तक व्यक्ति में विनय नख्रता,
मुदु्ता, ऋजुता व समपेंण भाव न हो तब तक
हम चाहे जितना ज्ञान प्राप्त कर लें, चाहे जितना
कठोर तप कर लें, चाहे बड़े से थढा त्याग कर लें,
फिर भी हमारी श्रात्मा का उद्धार होने वाला
नहीं है।
जिस प्रकार चुम्बक लोहे को खीचता है ठीक
उसी प्रकार भक्ति मुक्ति को खीचती है। चिन्ता-
मणि ररन पत्थर (जड़) होते हुए भी विधि पुर्वेक
उपयोग करने से सर्व भनोवांछित पुर्ण करता है
उमी तरह प्रभु की मूर्ति भी चिन्तामशि रत्न के
समान है । यदि हम उसकी पझाराधना विधि पुर्वेक,
तनमन मे करें तो मुक्ति हमसे टूर नहीं रह
सकेगी । यह भक्ति रुपी चुम्बक से स्वयं लंच
झाजेगी 1
हमारे हृदय का भक्तिभाव जितना पवित्र,
निर्मत शुद्ध व उच्चतम होगा, उसका फल भी
इतना ही सर्वोत्कृष्ट होगा ।
भक्ति सर्दव निष्काम भाव से करना चाहिये ।
भक्ति में सांसारिक सुखों, भौतिक लालसाम्रों का
तनिक भी स्थान नहीं है । इसलिये वीतराग प्रभु
की पुजा, उपासना परमाथ के लिये ही करना
चाहिये ।
श्री जिनेशवर देव की भक्ति से ही आत्मा
परमानन्द को प्राप्त करती है । भक्त को प्रभु की
भक्ति में जो परम-श्रानन्द की श्रनुभूति होती है
उसका वर्णन शब्दों में करना सम्भव नहीं है । चह
केवल श्रात्मानुमव की वस्तु है । जो व्यक्ति इसका
रसास्वादन करना चाहे चह प्रयोग रूप में ८-१०
दिन पूजा करके देखे । प्रभु की नव श्रंग पूजा भक्ति
भाव से करें, फिर उनके गुणों को स्मरण करते
हुए, दृष्टि को प्रभु के स्वरूप श्रवलोकन में लगायें,
तब साक्षात् श्रानन्द का श्रनुभव हुए बिना न
रहेगा ।
भक्ति के परम श्रानन्द का माप वे ही कर
सकते है जिन्होंने कभी भक्ति की हो । जो मनुप्य
जन्म लेने के बाद जिनशासन पाफर भी भक्ति के
झानन्द से चंचित हैं, वास्तव में वे लाध्मिक श्रानन्द
से ही वंचित हैं ।
“हुदय में भक्ति घोर भक्ति में हुदय'”'
ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाने पर धात्मा की
दिय्य सम्पत्ति हमसे दूर ने रहेगी 1
User Reviews
No Reviews | Add Yours...