एक इंच मुस्कान | Ek Inch Muskan

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Ek Inch Muskan by मन्नू भण्डारी - Mannu Bhandariराजेन्द्र यादव - Rajendra Yadav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२६, ७०९० एक इंच मुस्कान फूल तोड़ते देख उसने श्रनुमान लगाया कि पिताजी पूजा में बैठने ही वाले होंगे ** श्र यों ही दाएं-बाएं देखती धीरे-धीरे वह सारा लॉन पार कर गई गौर फिर एक पेड़ के नीचे जाकर घूम पड़ी तो तीन छुवड़ों में बंटी हुई पूरी की पूरी कोठी उसके सामने थी । “बड़े बाहरों में स्थान का इतना भ्रभाव रहता है कि लोग निकट से निकटतम मेहमानों को थी बोक की तरह लेते हैं, फिर मैं तो एक तरह से कट होते हुए भी श्रपरिचित ही हूं । यट्ठ भी नहीं जानता, तुम्हारे घर में कौन-कौन है, दौर वे मुझे किस रूप में लेंगे, इसीलिए तुम्ट्ारे साथ ठहरते हुए बड़ी दी लग रही है। जो भी हो, कम से कस तुम सुफ्े निःसंकोच भाव से बता देना स्टेदान ही मत श्राना, मैं कटी थी ठहरकर तुमसे मिलने मरा जाऊंगा !' “प्व्थान का भ्रभाव” श्ौर एक ही बार में उस विराट कोठी को श्रपनी लजरों में समेटते हुए श्रमला सुस्करा पड़ी । निकट होते हुए भी श्रपर्शिवित 1 सच ही तो है एक साल के इस पत्र-व्यवहार से हम निकट से चिकटतम श्र घनिष्ठ से घनिष्व्तम हुए हैं, फिर भी एव-दूसरे के व्यक्तिगत जीवन के बारे सें कुछ नहीं जानते, कुछ भी तो नहीं जानते । क्या सोचता होगा भ्रमर मेरे बारे में यही न कि एक मध्यम वर्म की पढ़ी-लिखी लड़की है, जो साहित्य में रुचि रखती है, श्रौर वह ''वह क्या सोचती है ? उसने तो कभी कुछ नहीं सोचा वह जानती हैं कि हिन्दी का एक लेखक जिस तरह का होता है उससे भिन्न अ्रमर में कुछ नहीं होगा । हां, वह लिखता भ्रच्छा है; उसमें प्रतिभा है, उसके विचारों में श्राग है, भावों में गहराई श्रौर अनुशूति-जन्य टीस है । श्रौर पत्र पत्र तो वह सचसुच ऐसे लिखता है कि मन बंध जाए, डूब जाए ! अमर के साल-भर के पत्रों की श्रसेक पंक्तियां उसकी श्रांखों के सामने घूम गईं श्रौर वह उन्हींगें खोई-सी मुस्कराती खड़ी रही । तभी एकाएक उसे खयाल झाया--कलाश को फोन करना है, नहीं तो हु घूमने निकल जाएगा । वह जानती है कि साथ न जाने की बात सुनकर ही कलाद नाराज़ होगा” श्रौर कारण जानकर तो बस भभक ही उठेगा । साधारण लोगों से मिलना-जुलना, उनके साथ बरावरी का व्यवहार करना केलाश को कतई पसन्द नहीं; श्रौर श्रमला है कि लाख प्रयत्न करके भी कैलाश की इस बात के झागे अपने को नहीं झुका पाई ।




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