अध्यात्मयोग और चित्त - विकलन | Adhyatmyog Aur Chitt Vikalan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
49 MB
कुल पष्ठ :
281
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)लि ध्यात्सयो रा और चित्त-विंकलन
है कि हम श्रपने श्रनुकूल मार्ग पर हैं । लि मबिष्य में कोई वांछनीय लक्ष्य है भी,
पी हक सन प्रकृति की शक्तियों पर
पयह आ्राश्चय किस्तु सत्य है कि प्रतिवष मानव ; हद
विभुता स्थापित करता जा रहा हैं, किन्ठ उसे अपने पर ही संयम नहं हू
ज्यों-का-त्वों श्रवोद्िक एवं आ्सम्य पड़ा हुआ है । *
“हम सब अन्धे,
जब तक हस यह समझ न पाते
कोई थी निर्माण न साथक
यदि इस मानव-अभियोजन से
मानव का निर्माण न होता । *ै लक
इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानों को बिदित हो रहा है कि मानव विषयों में सुख-
शान्ति नहीं पा सकता । सभी वाद्य उपकरणों के मिलने पर भी मदुष्य का. अन्तर
जीवन नहीं बदलता । वह “मानव नहीं बन सकता । श्रतः पाश्चात्य विद्वान अब अपनी
दृष्टि बाह्य जगत् से हटा रहे हैं श्र मानव बनानेवाले साधनों के लिए झन्यत्र खोज
कर रहे हैं | उनकी दृष्टि वाद्य रूप को छोड़कर क्रमश, श्रपनी ओर लौट पड़ती है श्रौर
अन्त में अ्पनेमें आकर ठहर जाती हैं।
अपनेकों प्रटेक व्यक्ति मैं” कहता है। उसी मैं? को वह श्पने ालम्बन
समकने लगता हैं। वाद्य जगत् के सभी पदार्थ बदलते हैं। किन्ठु मैं” का जो बोध
होता है; वदद नहीं बदलता । मैं हूँ या नहीं हूँ'९, यह सन्देह किसी को नहीं होता;
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४-नहि कथ्चिण सन्दिखे अह दा नाहें वेति । भामति, अध्यास |
देगा ( 0९४०७7९४ ) ने कहा 0०ह्टाघ0' छाष्० 8प0* ( में सोचता हूँ, अत: में हूँ । 3 पर
यइ उचित नहीं है, क्योंकि बिना एक के अस्तित्व के व सोच भी नहीं सकता | प्रा, छाु० ००8७0
( मैं हूँ भत: सोचता हूँ ) कहना साधुनर दोगा |
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