अध्यात्मयोग और चित्त - विकलन | Adhyatmyog Aur Chitt Vikalan

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Adhyatmyog Aur Chitt Vikalan by वेंकटेश्वर शर्मा -Venkteshwar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लि ध्यात्सयो रा और चित्त-विंकलन है कि हम श्रपने श्रनुकूल मार्ग पर हैं । लि मबिष्य में कोई वांछनीय लक्ष्य है भी, पी हक सन प्रकृति की शक्तियों पर पयह आ्राश्चय किस्तु सत्य है कि प्रतिवष मानव ; हद विभुता स्थापित करता जा रहा हैं, किन्ठ उसे अपने पर ही संयम नहं हू ज्यों-का-त्वों श्रवोद्िक एवं आ्सम्य पड़ा हुआ है । * “हम सब अन्धे, जब तक हस यह समझ न पाते कोई थी निर्माण न साथक यदि इस मानव-अभियोजन से मानव का निर्माण न होता । *ै लक इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानों को बिदित हो रहा है कि मानव विषयों में सुख- शान्ति नहीं पा सकता । सभी वाद्य उपकरणों के मिलने पर भी मदुष्य का. अन्तर जीवन नहीं बदलता । वह “मानव नहीं बन सकता । श्रतः पाश्चात्य विद्वान अब अपनी दृष्टि बाह्य जगत्‌ से हटा रहे हैं श्र मानव बनानेवाले साधनों के लिए झन्यत्र खोज कर रहे हैं | उनकी दृष्टि वाद्य रूप को छोड़कर क्रमश, श्रपनी ओर लौट पड़ती है श्रौर अन्त में अ्पनेमें आकर ठहर जाती हैं। अपनेकों प्रटेक व्यक्ति मैं” कहता है। उसी मैं? को वह श्पने ालम्बन समकने लगता हैं। वाद्य जगत्‌ के सभी पदार्थ बदलते हैं। किन्ठु मैं” का जो बोध होता है; वदद नहीं बदलता । मैं हूँ या नहीं हूँ'९, यह सन्देह किसी को नहीं होता; शक शी. 0फ़ा ए०एर्ड 68 फाएनणपंपि शव 8पंहाए06 फ़6 876 87000 फिातक्ाएरापं को! उए0ाकाए 9 0. दि. एक्स 0. 0एए एशपाडिकत्रिणा, काात प08 धहापतंड, . हि ऐ0 एर्0 पप0फ़ फाफिहा'७ फ़6 धा06 ठुणग््ट; एाघिा' 00 फ6. पाए 0ए ५970 फ6 88 00. 0प फाकफ, दीन घिहा6 दंड 0७अंध्काण6 छु०9) 80060 6ा6 1 ५06 पिपिधपा'6 कह 8 96. दिए 0प. 0 0एए फाधतु,नाप्ाधाइण 7 प्रदाधन, लग एफ, उदए 929, 2. इछे, र-ी पड शक छिप 00 धिा6 फर्क फु68 9 ज68ा 61016 0प्रशाक्षाा पते हि08 ५0प्रधाएंह (शपांफृ0६8ा106 0ए6ए फि6 ईणए068 04 र्कप्रा6 एछााधतचाचिए छाए पलक * प्रिपपहं एुतपरंघिरटाए ऊंप फंड. 0. 0. ए0्त्ताकात 06 पिशाइला,-8लंढधिीठ छणपाए, 4 कप! 2929. व ३ नि धाष धा] 9ि्िंतत प्रणता! का 866 पका, कं घिए6 सपा का 180 शरणपरांण्ट 18 फ्रणधि, ५6 फ्राधोरीएठु, 20 प०९8 फ0: शा प6 पिए6 ाघाा, एप, तप काादिधवक, 8िलअाएंट 0, पा, 999. ४-नहि कथ्चिण सन्दिखे अह दा नाहें वेति । भामति, अध्यास | देगा ( 0९४०७7९४ ) ने कहा 0०ह्टाघ0' छाष्० 8प0* ( में सोचता हूँ, अत: में हूँ । 3 पर यइ उचित नहीं है, क्योंकि बिना एक के अस्तित्व के व सोच भी नहीं सकता | प्रा, छाु० ००8७0 ( मैं हूँ भत: सोचता हूँ ) कहना साधुनर दोगा |




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