आत्म - कथा | Atma Katha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
304
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दी आत्म-कधा
एकवार मेरी माँ ने कपड़े रसी में डाठे | ( रसी एक जाति
की पीली सी मिड़ी थी जो पुराने ज़माने में सोड़ा की जगह
कपड़े थोनि के काम में छाह जाती थी ) रसी ओर पीली मिड
का मद न समझ कर मैं मानने लगा कि पीली मिंदी से कपड़े
साफ होते हैं । इसलिये जब मैं खेती [ ऐसे बड़े बड़े गढ़ जो
वर्सात में पानी भर जाने से प्रत्चठ या छोटे ताछाब से बन जातें हैं]
में नहाने गया तो वहां की मिंद्री में अपने कपड़े रगड़ने ठगा ।
जब पिताजी ने फटकारा तब मैं चकित होकर सोचने छगा कि
घर में तो ये हिड्ी में कपड़े डालते हूं पर यहां मिट्री उगाने से क्यों
रक्त हैं १
उन दिनों दो तीन वार रेंठ में बैठने का काम पड़ा था 1
झाहपुर से दमोह तीन ही स्ेडान है । इसलिये मुश्किल से एक
ही घंटा गाड़ी में बैठ पाता, जब उतरता तब रोते मुँह से उतरता |
मन ही. मन कड़ता--ओऔर आदमी तो बैठे हुए हैं फिर हमें
ही क्यों उत्तारा जाता है ? मैं इतना भी न. समझता था कि
रढगाड़ी में मौज के छिये नहीं वेठा जाता है. किन्तु अपने इच्छित
स्थान पर जाने के दिये बेठा जाता हैं ।
जो छोग मुझ से पहिले गाड़ी में बैठे होते और मेरे उतरने
पर भी नहीं उतरते और बिस्तर विछाये छटे रहते उन्हें मैं रेंढ का
आदमी समझता था । मेरे विचार में थे ठोग ज़िन्दगी-भर रेढ में
ही एते थे इसलिये उनके सुख का पार न था । आज तो रेछगाडी
से जल्दी पिंड छुट्ाने के लिये अधिक पैंसे देकर भी डाक या
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