आत्म - कथा | Atma Katha

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Atma Katha by स्वामी सत्यभक्त

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दी आत्म-कधा एकवार मेरी माँ ने कपड़े रसी में डाठे | ( रसी एक जाति की पीली सी मिड़ी थी जो पुराने ज़माने में सोड़ा की जगह कपड़े थोनि के काम में छाह जाती थी ) रसी ओर पीली मिड का मद न समझ कर मैं मानने लगा कि पीली मिंदी से कपड़े साफ होते हैं । इसलिये जब मैं खेती [ ऐसे बड़े बड़े गढ़ जो वर्सात में पानी भर जाने से प्रत्चठ या छोटे ताछाब से बन जातें हैं] में नहाने गया तो वहां की मिंद्री में अपने कपड़े रगड़ने ठगा । जब पिताजी ने फटकारा तब मैं चकित होकर सोचने छगा कि घर में तो ये हिड्ी में कपड़े डालते हूं पर यहां मिट्री उगाने से क्यों रक्त हैं १ उन दिनों दो तीन वार रेंठ में बैठने का काम पड़ा था 1 झाहपुर से दमोह तीन ही स्ेडान है । इसलिये मुश्किल से एक ही घंटा गाड़ी में बैठ पाता, जब उतरता तब रोते मुँह से उतरता | मन ही. मन कड़ता--ओऔर आदमी तो बैठे हुए हैं फिर हमें ही क्यों उत्तारा जाता है ? मैं इतना भी न. समझता था कि रढगाड़ी में मौज के छिये नहीं वेठा जाता है. किन्तु अपने इच्छित स्थान पर जाने के दिये बेठा जाता हैं । जो छोग मुझ से पहिले गाड़ी में बैठे होते और मेरे उतरने पर भी नहीं उतरते और बिस्तर विछाये छटे रहते उन्हें मैं रेंढ का आदमी समझता था । मेरे विचार में थे ठोग ज़िन्दगी-भर रेढ में ही एते थे इसलिये उनके सुख का पार न था । आज तो रेछगाडी से जल्दी पिंड छुट्ाने के लिये अधिक पैंसे देकर भी डाक या




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