आप्त - परीक्षा | Aapt Pariksha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
357
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाक्कथन ही
विचानन्दकें उन्लेखोंकी समीक्षा --
स्वामी विद्यानन्दने आझाप्परोक्षाकी रचना 'मोक्तमागस्य सेतार” आदि मंगलश्लोक-
को लेकर ही की हैं और उक्त मंगलश्लोकका अपनी श्याप्रपरीक्षाकी कार्रिकांमि ही
सम्मिलित कर लिया है। जिसका नम्पर ३ हे | दूसरी कार्रिका्ें शास्त्रके 'मादिमे
स्तबन करनेका उद्देश्य बताते हुए उत्तराद्धम 'इत्याहुस्तदुणुणम्तोत्र शास्त्रादों मुनिपुज्वा:'
लिखा है । इसकी टीकामे उन्होंने 'मनिपुप्नवा ' का अथ “सित्रकारादय:' किया है । आरे
तीसरी कारिका, जो कि उक्त मगलश्लॉक ही है, की उसत्थासिकाम भी ' कि पुनस्तत्परसे
नी युणस्तोन्र शास्त्रादोी सच्रकारा प्राहु. 'सब्कार' पदका उन्लेग्व किया हैं । चौथों कारिका-
की उत्थानिकाम वक्त सूत्रकारके लिए “भगवदि ? जसे पृज्य शब्दका प्रयोग किया है।
इससे स्पष्ट है कि घिद्यारवन्षदि उक्त मंगलस्दाकका सत्त्वाथसूचकार भगवान उमास्वामी
की ही रचना मानते हैं । आधपपरीक्षाके अन्तमें उन्होंन पुन. इसो बातका उल्लेख करके
उसमें इतना और जाड़ दिया द कि स्वार्मीनि जिस तीर्थेपिस स्तोत्र (उक्त सगलस्ोक) की
मोमासा की विद्यानन्दिनि उसीका व्याख्यान किया । यह रपट हैं कि “स्वामिर्मीसासित से
चदयानन्दिका आशय स्वामी समन्तमद्रतिगचित अपतमीमासास है | अथान वे एस्स
मानत हैं कि स्वामी समन्तभद्रकी छप्रमोसासा भी उक्त मगलस्वॉकके आधारपग ही
रची गई हैं । किन्तु विद्यानन्दिके इस कथनकी पुष्टिकी बात ते! दूर, उसका सकत तक भी
त्राप्तमीमासासे नहीं मिलता आर न किसी अन्य स्तोत्रस ही विद्यानन्दिकी बातक
मधन होता हैं । यद्यपि स्वामी समन्तभद्रन अपने आ्तकों निदोपि न्यौर युक्तिशास्त्रा-
चिरोधिवाक' बतलाया है तथा निर्दोष पदस 'कममूदन सेतृस्व' अपर 'युतितशास्व्राधिरोवि-
बाक पद से सवज्ञरव उन्ह अभीए हे यह भी ठीक है, दानाकी सिद्धि भी उन्लेन की है |
कन्त उनकी सारी शक्ति तो 'युक्तिशास्त्राविरोधवातत्व? के समथ नमें हो लगी है । उनका
स्पराग्त इसलिये आप्त नहीं हैं कि वह कम मूभतमंत्ता है या सवज्ञ हैं। बह ठो इसीलिये
अआत्त हैं कि उसका 'इषप्र' 'प्रसिद्धर से बाधित नहीं होता । अपने आप्तकी इसी विशेषता
(स्याद्वाद) का दशात-दर्शान नथा उसका समर्थन करत-करते वे ११३वीं काररिका तक जा
पहुँचत है जिसका अन्तिम चरण हो--इति स्पाद्वादसस्थिति ।' यह 'स्याहादसम्थिति '
ही उन्हें अभी हैं वही आपमीमासाका मुख्य ही नहीं, किन्त एकमात्र प्रतिपाद्द विपय
है । इसके बाद अन्तिम ११४वी कारिका आजानी है जिसमें लिखा हैं कि हितच्छ लोगों-
के लिये सम्यक् और मिध्या उपदेशक भदकी जानकारी करानके उश्यसे यह अआप-
मीमांसा बनाई ।
आपमीमांसापर अझष्टशतीकार भट्राकलकदवन भी इस तरहका कोई संक्रत नहीं
किया । उन्होंने 'ाप्रमी मांसाका अर्थ 'सबज्ञविशेषपरीक्षा' अवश्य किया है श्रत, विद्यान-
न्दिको उक्त पक्तिका समथन किसी भी स्तोत्रसे नहीं होता । फिर भी '्याचार्य समन्तभ ट्रक
समयनिर्धारणके लिये विशेष चिन्तित रहनेवाले विद्वान विद्यानन्दिकी इस उक्तिकों
प्रमात मानकर और उसके साथमे अपनी मान्यताकों / कि उक्त मंगलश्रोक चाय
बुज्यपादकृत सवार्धिसिद्धिका मंगलाचरण है तत्त्वार्थसुत्रका नहीं ) सम्बद्ध करके लिख
User Reviews
No Reviews | Add Yours...