प्रमाणप्रमेयकलिका | Pramanprameyakalika

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Pramanprameyakalika by दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रन्थमारा-यम्गदश्चेम यश्प्म्य १३ मरोमा दिदादा कि हम यदादार्ति दस्यमाछारों विर जोदित रखनेरा यन्न बरेगे । हमते यह चर्चा चडायों, ठया मारतीय श्रानपोटक गंस्यापक् माह शानिप्रफादनो भौर उनद्नो विद्धो धमर्तो द हानगेटरी अन्यधा श्रीमती रमारानी होने सदर इस बालिशाड़ों अपनी गोदमे छेना स्वीकार कर लिया ।. यतपि प्रम्यमाला अपनों आदुरे ५-४६ वर्ष पूर्ण कर घुवो है, छया जव कोई स्वयं थपने वेसो साड़े होशर चंदन योग्य मढ़ों बनता तब बट बालक हो माना जाता हैं इस प्रत्यमादावा भी कोई घुवफाड तुध्य नहीं हो सारा और प्रकाशित रन्यो मून्य तो नियमानुसार गत माद ही रया जाता था । इसीछिए दघर कुछ प्रम्यंक्रि प्रषरायनमे यन्यनाापर कर्मं भी घट गयाया। मादद्गेनदे पाकि बद्‌ कंमो चुका देना सौफार कर लिया और प्रमाणाद्‌ उदेतयोको सुरिन रमते टण्‌ उमड़ा सुरुवाठन-कार्य भारतीय ज्ञानयीठके अस्तर्गत छे लिया । इस प्रवार दस्थमालाड़ो एक नया जीवन प्राप्त हो गया । इस उदार वाहगप्य और प्रभावनाके दिए साटूरिवारका जितता अमिनस्दन किया जायें, थोडा हैं । ग्रस्यमाल्माके सझवालनयी भुरा दो गयो । दतु उमे मथार बनानेक दिर दूयरी भवप्यतना म्द है कि जिद्वानो-द्वारा सुमम्पादित प्न्य उमे धानार्थं निवे दे + यट्‌ कायं प्रेमोजी यने रमम चुपचाप बढ़े कौशल है रखें रहते मे । उनके पश्चातू अब इस उत्तरदायिस्वकों सम्हालना सपसत दिद्दगंका कर्तेस्य हो जाता है। सभी भी शासह्प-मण्दारोंमें अगणित छोड़ीनवड़ी श्रप्रहाशित संस्ठ, प्रात व बपभ्श रचनाएँ पड़े हुई है । केवल उनके मून्याठतो हो यपाराम्मद शोधकर इय प्रत्यमालामें प्रकाशन म्यह जा सकता हूँ । श्रुतमण्दारो संस्यापरोने युग-पुयान्तरंक्ों आवश्यगसानुसार श्रुतनपरम्पराकी रक्षा थी हैं । डिन्तु वर्तमान पुगकी माँग हैं कि समस्त व्राजीन साहिर्यको शुद्ध सुचाय सूपमे मुर्दित कराकर प्रकाशित डिया जाये, उनवा आयू्िक सापाओंे अनुवाद कराया जाये तथा उनपर यपासम्नर धोष-्यवन्ध लिखे जायें । शदवक यह बाय पूरा नहीं होता




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