आप्त - परीक्षा | Aapt Pariksha

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Aapt Pariksha by दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाक्कथन ही विचानन्दकें उन्लेखोंकी समीक्षा -- स्वामी विद्यानन्दने आझाप्परोक्षाकी रचना 'मोक्तमागस्य सेतार” आदि मंगलश्लोक- को लेकर ही की हैं और उक्त मंगलश्लोकका अपनी श्याप्रपरीक्षाकी कार्रिकांमि ही सम्मिलित कर लिया है। जिसका नम्पर ३ हे | दूसरी कार्रिका्ें शास्त्रके 'मादिमे स्तबन करनेका उद्देश्य बताते हुए उत्तराद्धम 'इत्याहुस्तदुणुणम्तोत्र शास्त्रादों मुनिपुज्वा:' लिखा है । इसकी टीकामे उन्होंने 'मनिपुप्नवा ' का अथ “सित्रकारादय:' किया है । आरे तीसरी कारिका, जो कि उक्त मगलश्लॉक ही है, की उसत्थासिकाम भी ' कि पुनस्तत्परसे नी युणस्तोन्र शास्त्रादोी सच्रकारा प्राहु. 'सब्कार' पदका उन्लेग्व किया हैं । चौथों कारिका- की उत्थानिकाम वक्त सूत्रकारके लिए “भगवदि ? जसे पृज्य शब्दका प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट है कि घिद्यारवन्षदि उक्त मंगलस्दाकका सत्त्वाथसूचकार भगवान उमास्वामी की ही रचना मानते हैं । आधपपरीक्षाके अन्तमें उन्होंन पुन. इसो बातका उल्लेख करके उसमें इतना और जाड़ दिया द कि स्वार्मीनि जिस तीर्थेपिस स्तोत्र (उक्त सगलस्ोक) की मोमासा की विद्यानन्दिनि उसीका व्याख्यान किया । यह रपट हैं कि “स्वामिर्मीसासित से चदयानन्दिका आशय स्वामी समन्तमद्रतिगचित अपतमीमासास है | अथान वे एस्स मानत हैं कि स्वामी समन्तभद्रकी छप्रमोसासा भी उक्त मगलस्वॉकके आधारपग ही रची गई हैं । किन्तु विद्यानन्दिके इस कथनकी पुष्टिकी बात ते! दूर, उसका सकत तक भी त्राप्तमीमासासे नहीं मिलता आर न किसी अन्य स्तोत्रस ही विद्यानन्दिकी बातक मधन होता हैं । यद्यपि स्वामी समन्तभद्रन अपने आ्तकों निदोपि न्यौर युक्तिशास्त्रा- चिरोधिवाक' बतलाया है तथा निर्दोष पदस 'कममूदन सेतृस्व' अपर 'युतितशास्व्राधिरोवि- बाक पद से सवज्ञरव उन्ह अभीए हे यह भी ठीक है, दानाकी सिद्धि भी उन्लेन की है | कन्त उनकी सारी शक्ति तो 'युक्तिशास्त्राविरोधवातत्व? के समथ नमें हो लगी है । उनका स्पराग्त इसलिये आप्त नहीं हैं कि वह कम मूभतमंत्ता है या सवज्ञ हैं। बह ठो इसीलिये अआत्त हैं कि उसका 'इषप्र' 'प्रसिद्धर से बाधित नहीं होता । अपने आप्तकी इसी विशेषता (स्याद्वाद) का दशात-दर्शान नथा उसका समर्थन करत-करते वे ११३वीं काररिका तक जा पहुँचत है जिसका अन्तिम चरण हो--इति स्पाद्वादसस्थिति ।' यह 'स्याहादसम्थिति ' ही उन्हें अभी हैं वही आपमीमासाका मुख्य ही नहीं, किन्त एकमात्र प्रतिपाद्द विपय है । इसके बाद अन्तिम ११४वी कारिका आजानी है जिसमें लिखा हैं कि हितच्छ लोगों- के लिये सम्यक्‌ और मिध्या उपदेशक भदकी जानकारी करानके उश्यसे यह अआप- मीमांसा बनाई । आपमीमांसापर अझष्टशतीकार भट्राकलकदवन भी इस तरहका कोई संक्रत नहीं किया । उन्होंने 'ाप्रमी मांसाका अर्थ 'सबज्ञविशेषपरीक्षा' अवश्य किया है श्रत, विद्यान- न्दिको उक्त पक्तिका समथन किसी भी स्तोत्रसे नहीं होता । फिर भी '्याचार्य समन्तभ ट्रक समयनिर्धारणके लिये विशेष चिन्तित रहनेवाले विद्वान विद्यानन्दिकी इस उक्तिकों प्रमात मानकर और उसके साथमे अपनी मान्यताकों / कि उक्त मंगलश्रोक चाय बुज्यपादकृत सवार्धिसिद्धिका मंगलाचरण है तत्त्वार्थसुत्रका नहीं ) सम्बद्ध करके लिख




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