बापू की विराट वत्सलता | Bap Ki Virat Vatsalata
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थणनक परके श्ह
चार्यालयनें भी काम किया था । वे सावरमती आश्रममें भी
रहे थे । और लाधमकों राष्ट्रीय दालाके एक दिक्षक भी
रह चुके थे ।
सन् १९२९ में उन्होंने जआाश्रमके पासयाले अपने घरमें
उपवास करना घुरू किया । मनमें एक विचार आया । थोड़ा
मन्पन-चिन्तन चला । फिर निश्वय हुआ बौर उपवास शुरू
हो गये । बापू उन दिनों आश्रममें नही थे। वे देगमे वही
घूम रहे थे । इधर आधमके पड़ोसमें श्री भणसालीभाईकि
उपवास चल रहे थे। हफ्ता बीता, दो हफ्ते यीते, तीन हफ्ते
बीते, मद्दीना बीत गया, पर भगसालीभाईका उपवास न् टूटा ।
आशममें इसके कारण सभी कोई चिंतित थे । भणसाठीमाई
उन दिनों आधमवासी नहीं थे । फिर भी आश्रमवाले सब
उन्हें अपना साथी और भाई समझते थे । उनकी धहुत इज्जत
करते थे । सवा महीना हुआ, डेढ महीना होने आया। लोग
परेगान हुए । उधर भणसालीभाई भी दिनोदिन कमजोर
होने छगे। समझानेवाठे समझाते थे, पर भगसाठीभाई उपवास
छोड़नेको राजी नहीं होते थे । सब कोई कहने ऊगे कि अब
तो बापू आावें और समझावें तमी भणसालीमाई समझेंगे ।
संयोगते कुछ ही दिनों वाद बापू अपने दौरेका एक
दौर पूरा करके सावरमती लौटे । भणसालीमाई उस समय
तक पचाससे अधिक दिनके उपवास कर चुके थे । बहुत कमजोर
हो गये थे । पर मनसे प्रसन्न और स्वस्थ थे । जैसे ही चापू
आशममें आये और उन्हें भणसाठीभाईकी हाउतका पता चला,
वे उनसे मिठने गये उन्हें समझाया । चर्चा की । बात गले
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