बापू की विराट वत्सलता | Bap Ki Virat Vatsalata

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Bap Ki Virat Vatsalata by काशिनाथ त्रिवेदी - Kashinath Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थणनक परके श्ह चार्यालयनें भी काम किया था । वे सावरमती आश्रममें भी रहे थे । और लाधमकों राष्ट्रीय दालाके एक दिक्षक भी रह चुके थे । सन्‌ १९२९ में उन्होंने जआाश्रमके पासयाले अपने घरमें उपवास करना घुरू किया । मनमें एक विचार आया । थोड़ा मन्पन-चिन्तन चला । फिर निश्वय हुआ बौर उपवास शुरू हो गये । बापू उन दिनों आश्रममें नही थे। वे देगमे वही घूम रहे थे । इधर आधमके पड़ोसमें श्री भणसालीभाईकि उपवास चल रहे थे। हफ्ता बीता, दो हफ्ते यीते, तीन हफ्ते बीते, मद्दीना बीत गया, पर भगसालीभाईका उपवास न्‌ टूटा । आशममें इसके कारण सभी कोई चिंतित थे । भणसाठीमाई उन दिनों आधमवासी नहीं थे । फिर भी आश्रमवाले सब उन्हें अपना साथी और भाई समझते थे । उनकी धहुत इज्जत करते थे । सवा महीना हुआ, डेढ महीना होने आया। लोग परेगान हुए । उधर भणसालीभाई भी दिनोदिन कमजोर होने छगे। समझानेवाठे समझाते थे, पर भगसाठीभाई उपवास छोड़नेको राजी नहीं होते थे । सब कोई कहने ऊगे कि अब तो बापू आावें और समझावें तमी भणसालीमाई समझेंगे । संयोगते कुछ ही दिनों वाद बापू अपने दौरेका एक दौर पूरा करके सावरमती लौटे । भणसालीमाई उस समय तक पचाससे अधिक दिनके उपवास कर चुके थे । बहुत कमजोर हो गये थे । पर मनसे प्रसन्न और स्वस्थ थे । जैसे ही चापू आशममें आये और उन्हें भणसाठीभाईकी हाउतका पता चला, वे उनसे मिठने गये उन्हें समझाया । चर्चा की । बात गले




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