मूलाचार | Mulachara

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Mulachara  by कैलाशचंद्र शास्त्री - Kailashchandra Shastriजगमोहनलाल शास्त्री - Jagmohanlal Shastriपं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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कैलाशचंद्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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जगमोहनलाल शास्त्री - Jagmohanlal Shastri

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पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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करे, मय्यह् को देववंदना में दो, पुन अपराह्त के स्वाध्याय में तीन और देवसिक प्रतिक्रवण में चार, रात्रिमोम प्रतिष्ठापना में योगभक्ति का एक, अनन्तर अपराह्िक देवबल्दना के दो और पूर्व रात्रिक स्वाध्याय के तीन क्ृतिक्मे होते हैं। सब मिलकर २८ कृतिकर्म हो जाते हैं । अनगार धर्मामृत आदि में भी इस प्रकरण का उल्लेख है। कृतिकर्म की विधि-- दोणद तु जश्ाजाद॑ बारसावत्तमेव च । चदुस्सिरं तिसुद्ध च किदियम्म पउजदे' ॥। अर्थात्‌ यथाजात मुनि मन वचन काय की शुद्धिपुबेंक दो प्रणाम, बारह आबत॑ और चार शिरोनति सहित क्ृतिक्म को करे । इसकी विधि--किसी भी क्रिया के प्रारम्भ में प्रतिज्ञा की जाती है, पुनः परचांग नमस्कार करके, खड़े होकर तीन आवते और एक शिरोनति करके सामायिक दण्डक पढ़ा जाता है, पुन. तीन आवते एक शिरोनति करके सत्ताइस उच्छवास मे नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए कायो- त्सर्ग करके, पुन पचाग नमस्कार किया जाता है । पुन, खड़े होकर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके जिस भक्ति के लिए प्रतिज्ञा की थी वह भक्ति पढ़ी जाती है । इस तरह एक भविति सम्बन्धी कायोत्सर्ग मे प्रतिज्ञा के बाद और कायोत्सर्गे के बाद दो बार पचाग नमस्कार करने से “दो प्रणाम' हुए । सामायिक दण्डक के प्रारम्भ और अन्त मे तथा थोस्सामि स्तव के प्रारम्भ और अन्त मे तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से आरह आवर्तं और चार शिरोनति हो गयी । यह एक कृतिकर्म का लक्षण है, अर्थात्‌ एक क्ृतिकर्म में इतनी क्रियाएं करनी होती है। इसका प्रयोग इस प्रकार है-- “'अथ पौर्वाह्लिक देववदनाया** ** ' * “चैत्यभक्ति कांयोत्सर्ग करोम्पहभू” । यह प्रतिज्ञा करके पंचांग या साष्टांग नमस्कार करना, पुनः खडे होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सामायिक पढ़ना चाहिए, जो इस प्रकार है-- णमो अरिहताण णमों सिद्धांणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्ञायाण णमो लोए सब्बसाहुण ॥। चत्तारि मगल--अहरत मगल, सिद्ध मगल, साहू मंगल, केवलि पण्णतों धम्मो मगल। चत्तारि लोगुत्तमा--अरहत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मों लोगुत्तमो। चतत्तारि सरण पब्चज्ञामि--अरहंत सरण पवबज्जामि सिद्ध सरण पब्चज्जामि साहू सरण पव्वज्जामि केवलिपण्णत्ं धम्म॑ं सरण पंव्वज्जासि । १. षडावश्यक अधिकार । २. जिस क्रिया को करना हो उसकी नामे लेवे । दे. जिस धेक्ति को पढ़ना हो उसकी काम लेंबे ! आत् उपोइ्चात | ५ ,




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