भारतीय प्रेमाख्यान की परम्परा | Bharatiya Premakhayan Ki Parampara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवेश डर सफलता प्राप्त किये, सन्तोप की सांस लेना नहीं जानता । प्रेमी को अपने मेम- पात्र का क्षणिक विरह भी भ्रसहय हो उठता हे श्ौर प्रेमाख्यानों में उसे उसके लिए झधघीर एवं वेचेन होकर प्रायः उन्सत्त तक वन जाने वाला चित्रित किया जाता है । इसी प्रकार प्रेमाख्यानों का श्वन्त श्धिकतर प्रेमी एवं प्रेस पात्र के सिलन में ही हुश्ना करता है, किन्तु कभी-कभी इनमें, इसके विपरीत उनके प्रयत्नों की विफलता भी दिखला दी जाती है। विशुद्ध प्रेमाख्यानों के झन्तगंत प्रेमी एवं प्रेसपात्र का प्रेमभाव श्वारस्भ से ही पारस्परिक तथा एक समान दीख पढ़ता है श्रौर वे दोनों ही मिलन के प्रयर्न भी किया करते दें । किन्तु कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि पहले एक पक्त के दी ऊपर इसकी चुन सवार दोती दे घर यदि वह कोई वीर या योद्धा! हुश्ा तो वद्द झपनी प्रेसपान्नी का हरण करने के उद्देश्य से विरोधियों के साथ विकट युद्ध तक ठान देता है । इसके सिवाय निम्न कोटि के कामासक्त प्रेसी बहुधा छुल-कपट वा पड्यन्त्रादि का भी ्राश्रय लिया करते हैं श्रौर वे दृत्याएँ भी करा डालते हैं । प्रेसाख्यानों के प्रेमियों की सफलता श्रधिकतर उनके घपने प्रेसपान्ों के साथ विचाह-सम्वन्ध के सम्पन्न हो जाने में ही देखी जाती हे । किन्तु भारतीय साहित्य में इसका एक चह्द रूप भी सिलता है जिसमें कोई ऐसी पत्नी श्रपने पातिघ्रत धर्म का पूर्ण परिचय देती है श्लौर श्रपने पति के विपथ हो जाने पर भी उसका साथ नहीं छोद़ती । वेदिक प्रेमाख्यान भारतीय प्रेमाख्यानों की परम्परा झ्रत्यन्त प्राचीन है श्रौर उनके कुछ उदाहरण 'घ़ग्वेद संहिता” तक में पाये जाते हें । “फ़ग्वेद' के दशम मण्दल वाले ४श्वें सूक्त में उचंशी एवं पुरूरवस्‌ का पुरूरवस्‌ और. प्रेमाख्यान श्राता है जिसके विपय में कहा गया है कि उवेशी “वग्भी तक जितनी भारतीय-यूरोपीय प्रेम-कद्दानियाँ चिदित हैं उनमें यद्द सर्वप्रथम है श्वौर हो सकता है कि सारे विश्व के प्रेसाख्यानों में भी यह प्राचीनतम समभा जा सके ।* इसकी प्रेसकधा के 'प्रन्तगंत न केवल अत्यन्त गम्मीर प्रेम साव की 'घभिव्यक्ति हुई है, २. लाए 15 ९ फिर उप्त्ते०-छपा0080 10४८-५(01ए हिए0प0, शा प्ा89 टए८0 ७८ फ़द णव&न 10ए८-8णए उप फिट पणाते,--ररें, तू एटपए८ा (पट 0८६४० ०६ 80 .0000, 924 ) छ. 245




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