जन कवि | Jan-kavi

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Jan-kavi by विजय बहादुर सिंह - Vijay Bahadur Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह सही है कि आचायें नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे समी क्षकों ने पदिचिमी अनु- करणों का विरोध करते हुए वाद-विमुक्‍्त साहित्य-सर्जना की माँग की, किन्तु यह माँग पुराने, घिसे-पिटे, दकियानूस जीवनादर्शों की न होकर क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों और मर्यादाओं की थी, इसे जान लेना होगा । नया साहित्य नये प्रदन' में नवीन यथाथंवाद वाले निवंध में वे लिखते है--'ऊपर मैंने जो कुछ कहा उसका यह मंतव्य नहीं कि कथि और साहित्यकार बदलते हुए समय भौर बदलती हुई परिस्थिति के अनुरूप नये विचारों का स्वागत न करें । मैं कह चुका हूं कि अपनी तीन्न सवेदनाओं के कारण वे ही नये युग के भग्रदूत और विधायक हुआ करते है । नयी जीवन-स्थितियाँ उन पर अनिवायं रूप से प्रभाव डालती है और नये ज्ञान को वे आदर के साथ अपनाते है । वर्तमान समय में हमारा पुराना सामाजिक भौर आर्थिक ढाँचा बदल रहा है भौर नयी समस्याएँ सामने आ रही है। इनका असर सारी सामाजिक रीति-नीति और प्रथाओ पर पड रहा है । इन सब में परिचतंन अवदयम्भावी है। कहना तो यह चाहिए कि तीन्न वेग से घटित होने वाले परि- वतन के फलस्वरूप ही पुरानी व्यवस्था उच्छिन्न हो रही है । नयी जीवन-शक्तियों को न पहचानना और प्रगति का साथ न देना,न केवल अदूरदक्षिता होगी, आत्म- घात भी कहा जायेगा ।” (पू० 20) हमारे कई-कई कठमुल्ले साथियों को यह सब नहीं दिखायी देता भौर वे परम्परा की प्रगतिशील दृष्टियो को प्रतिक्रियावादी साबित करते रहते है। यह तो सभव है कि ये प्रगतिशील दृष्टियाँ साक्संवाद का झंडा न उठाएँ, पर सामाजिक प्रगति और राष्ट्रीय विकास में इनकी भास्था असंदिग्ध हैं। भौर आज हमे अपनी चिंतन परपरा को सवल एवं समृद्ध करने के लिए इस परंपरा का पुनरीक्षण आवश्यक है । पत भौर निराला ही नही, प्रसाद आर महादेवी की काव्य-साघना का पुनमूं हयाकन जरूरी हैं और देखना यह है कि उनमे हमारे लायक़ क्या-कुछ है? सीघा अस्वीकार कोई विवेकसगत आचरण नहीं । बड़े छायावादियों मे विराट मानवता के दशंन तो होते ही है, सामान्य मनुष्य के गात्म-संघर्ष और उसकी कठोर साधना का भी उल्लेख होता है। मनुष्य की मनुष्यता की पूजा की सृजनात्मक शुरुआत तो वस्तुत. यहीं से प्रारम्भ होती है । और आाने वाले युवा उत्तर-छायावादियों के काव्य में जो सहजता, इहलौकिकता, ठेठ देशजता और रूढि-विरोध का स्वर मिलता है, वह यों ही नहीं है। बच्चन जैसे कवियों के काव्य में हिन्दुस्तानी युवक की सस्ती-भर नहीं, उसकी वे बेचैनियाँ भी देखी जा सकती है जो कठोर संकीर्ण सामाजिकताओं और साम्प्रदायिक भेद- भाव के बीच तड़फड़ा रही थी । इसे केवल रोमांस का विस्फोट नहीं कहा जा सकता | वच्चन पर विचार करते हुए सेकेविच के इस विचार को मह्देनज़र रखना होगा कि 'मधुशाला' के काव्य-नायक में जो फबकड़ता है, वह सिफ़ें स्वप्न और नदे की दुनिया मे ही डुबाने का एक पलायनवादी विकल्प नहीं सौपता । कभी वह प्रसंगवदा / 1 5




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