संदिग्ध संसार | Sandigdha Sansar

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Sandigdha Sansar by विजय बहादुर सिंह - Vijay Bahadur Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संदिग्ध संसार ७ चिन्ता में भाग ढेने का मुझे विशेष अधिकार दै। तू अब तक चिंता में पढ़ी दे, इससे कया मेरे मन में चिन्ता नहीं उत्पन्न होती ?” पुरुष ने कहा । आपका यद्दी विचार है तो मैं छापकी इच्छा के आधीन हूँ । मुके यह चिन्ता जलाया करती है कि भगवान ने कृपा करके दम लोगों को धन-गृहद, दास-दासी, मान और प्रतिष्ठा झादि संसार के जितने सुख-साधन हैं, सब दिया है; पर सगवान की कृपा से जब झपने लोगों का स्वगंवास दो जायगा तब इन सम्पत्तियों का उपयोग करने वाला कोई नहीं रद्द जायगा। इस विचार से मेरा कढेजा टूक-टूक हो रहा है और प्रस्तुत सुख में भयंकर दुःख का अजुभव होता दै ।' पुरुष के मन में शोक का आघात हुआ । शोक की छाया उसके मुखमंडल पर चृष्टिगोचर दोने लगी । वह निः्धास छेकर बोला--'शोक है ! अंधों की लकड़ी के समान एक लड़की थी; उसे भी दुष्ट काल ने छुटेरा का रूप घारण करके अपनी भोली में रख लिया । यदि वह मर गई दोती तो एक श्रकार से संतोष रहता; 'पर किसी ने उसे इरण कर लिया--यदद विचार मन में आते दी जीते जी दी मरण के ससान बेद्ना होती है ।'. दी 1 कि




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