काव्य दर्पण | Kabya Darpan

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Kabya Darpan by पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१०. (४) आपके मस्तिप्क स पाश्चात्य विचार उदल-कूद सचा ग हे हैं और हाथ में कलम है, जो चाहें कह डालें आर लिख डालें, पर ' हम कहें कि झापन जा शद्भागनरसाभास को सार से सन्च श्क्ार की आर श्रसर होना लिखा है वह ठीक नहीं हू । कया शज्ार हैं योर, क्या उसका रसाभाम है, इसका यम्प्ट वग्गन 'कान्यदर्पण' से है। पिप्रपेपरण की 'झावश्यक्रता नहीं । आभूषण का प्रम झादि रसाभास मं नहीं जाते । भूपणार्थ मान-मगोअल होने से तो श्रद्ार रस ही है. । भूठा ध्ाउम्चर, कच्रिम,प्रदरशन तो हास्य-रस में भी जा सकता है । पेंनी दृष्टि होने से ही रस की परम्व हों सकती हैं। जेसे-तेसे जा कुछ लिख देना रस-विवेचन नहीं कहा जा सकता । (६) राजनीति से सम्बन्धित होने के कारण कुछ उक्तियों चीर रस की समभी जाँय, यह कहना ता नितान्त 'असंगत है । इससे रस की छीछालेदर होती है; उसकी अप्रतिष्ठा होती है। राजनीतिक उक्तियाँ विचार की दृष्टि से भली-बुरी कही जा सकती हैं। वहाँ रस का क्या काम ? हाँ, राजनीतिक विचारों को कविता की भाषा में कहां जाय तो उसमें रस आ सकता हे पर उसी दशा में जब कि विचार से भाव दूब न जाय। '“स्वराज्य हसारा जन्मसिद्ध छाधिकार है”, इस उक्ति में भावना है। पर रस नहीं । ऐसी उक्तियों में भी यह विचार करना होगा कि रस के साधक साधन पू्णत: प्रतिपादित हैं या नह्दीं । केवल राजनीति का सम्बन्ध वीर रस का साधक नहीं ; वे उक्तियाँ कैसी हू क्योंनहों। जब समालोचना के नये-नये सिद्धान्त साहित्य के समन में बेसे सहायक नहीं होते तो रस-सिद्धान्त ने क्या अपराध किया है जिसकी हजारों बरसों से परीक्ता हो चुकी है। साहित्यिकों से यह अविदित नहीं कि अनुकरण-बाद से लेकर 'ञाज तक कितने पाश्चात्य सिद्धान्त--इज्म उत्पन्न हुए ; फूलने-फलस की बात कौन कहे, विकसे तक नहीं और बरस्राती कीड़ों की भाँति क्षणजीवी हो गये । यदि एक ही सिद्धान्त से परख होती तो समालोचना के इतने भर नहीं होते; होते ही नहीं, होते जा रहे हैं । कया इनमें से कोइ रस-सिद्धान्त की समकक्षता कर सकता है । पाश्यात्यों ने भी इसका लोहा मान लिया है २-प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान्‌ सिल्वाँ लेबी कहते हैं-- “कला के श्र में भारतीय प्रतिभा ने संसार को एक नूतन और श्रेष्ठ




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